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________________ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सहज सुसमृद्ध सिद्ध सम। अलख अनादि अनंत, अतुल अविचल सरूप मम ।। चिविलास परगास, वीत-विकल्प सुख थानक । जहाँ दुविधा नहीं कोई होई, वहाँ कहु न अचानक ।। जब यह विचार उपजंत तब, अकस्मात् भय नहीं उदित। ग्यानी निसंक निकलंक निज, ग्यानरूप निरखंत नित।। मेरी आत्मा शुद्ध ज्ञान तथा वीतरागभावमय है। सिद्ध भगवान् के समान परमात्मारूप है। ज्ञान लक्षण से विभूषित है। आत्मा सिर से पैर तक ज्ञानमयी है, नित्य है, उसका कभी नाश नहीं होता। शरीर आदि पर पदार्थ हैं। संसार का सब वैभव और कुटुम्बियों का समागम क्षणभंगुर है। जिसकी उत्पत्ति है, उसका नाश है। जिसका संयोग है, उसका वियोग है। परिग्रहसमूह जंजाल के समान है। आत्मा ज्ञानप्राण से संयुक्त है। उसका कभी तीन काल में भी नाश नहीं हो सकता। आत्मा सदा निष्कलंक और ज्ञानरूप है। उसमें कर्मों की वेदना का प्रवेश नहीं हो सकता। मेरा स्वरूप अरूपी, अनादि, अनंत, अनुपम, चैतन्यज्योति, निर्विकल्प, आनंदकंद और निर्द्वद्व है। उस पर कोई आकस्मिक घटना नहीं हो सकती। इस प्रकार चिन्तवन करने से सम्यग्दृष्टि को इहलोक आदि का भय नहीं होता। वे तो अपनी आत्मा को सदा निष्कलंक और ज्ञानरूप देखते हैं। यह सम्यग्दृष्टि का निःशंकित अंग है। इस अंग का पालन करने से अनादिकाल से लगा हुआ मिथ्यात्व छिन्न-भिन्न होकर शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष प्राप्ति का उपाय श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित तत्त्व और जिनेन्द्र भगवान् के प्रति श्रद्धान और तदनुसार चारित्र धारण करना ही है। अतः सभी को जिनेन्द्र-कथित आगम, जिनेन्द्रदेव और वीतराग गुरु पर दृढ़ श्रद्धान रखना चाहिये। 0 4750
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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