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________________ करता है, परन्तु जब कषाय का वेग कम होता है, तब मैंने अयोग्य कार्य किया है, ऐसा जो मन में पश्चाताप होता है, उसे 'निन्दा' कहते हैं। यह निन्दा नामक गुण निन्द्य पाप का नाश करने वाला है। 4 गर्हा- रागद्वेषादि दोषों के अधीन होकर जब घोर पाप उत्पन्न होता है, तब गुरु के आगे आलोचना करना, यह सम्यक्त्व का 'गर्हा' नामक गुण है। अपने दोषों के लिये स्वयं पश्चाताप करना निन्दा है, तथा गुरु के आगे अपने दोषों का पश्चातापपूर्वक वर्णन करना गर्दा है। 5 प्रशम- कोई दुर्निवार तथा महान कलुषता का कारण उत्पन्न होने पर जिसका मन क्षुब्ध नहीं होता, वह भव्यजीव 'प्रशम' गुण का धारक होता है। 6 भक्ति- जिनेन्द्र भगवान्, रत्नत्रयधारक मुनि, गर्भ-जन्मादि कल्याणकों का महोत्सव, इत्यादि प्रसंगों में सम्यग्दृष्टि अंतः-करण पूर्वक इच्छा और कपट रहित जो आराधना करता है वह उसका भक्ति नामक गुण कहा जाता है। यह गुण पुण्यफल रूप संपत्ति की प्राप्ति कराने वाला है। परिणामों की निर्मलता से जो देवादिकों पर अनुराग किया जाता है, उसे भक्ति कहते हैं। 7 वात्सल्य- अन्न औधषि आदि के द्वारा मन, वचन काय से चार प्रकार के संघ की जो प्रशंसनीय सेवा सुश्रुषा की जाती है, उसको वात्सल्य गुण कहते हैं। 8 अनुकम्पा- असातावेदनीय और अंतरायादि अशुभ कर्मों के उदय से प्रकट हुऐ दारिद्र, रोग, चिन्ता, वगैरह दुःखों से पीड़ित हुए जीवों पर दयाद्र भाव उत्पन्न होने को अनुकम्पा भाव कहते है। पर पीड़ा को देखकर मानों वह पीड़ा अपने को ही हो रही है ऐसा समझकर उसे दूर करना अनुकम्पा गुण है। महाकति श्री वीरनन्दि जी ने आचारसार ग्रंथ में लिखा है गुणः प्रशमनिर्वेग संवेगास्तिकदयः । स्वदोषगर्हानिन्दाद्याः सम्यक्त्वमणिरश्मयः ।।49 ।। सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग और आठ गुण सम्यक्त्वरूपी मणि की किरणें हैं। इन आठ अंग और आठ गुण रूपी अंजन के प्रयोग से सम्यग्दर्शनरूपी नेत्र जब निर्मल होता है, तब वह जीव को अभिलषित स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करा देता है। 10 4540
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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