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________________ दृढ़ता का अनुभव करता है। जब हमें किसी वजनदार वस्तु को उठाना होता है, तो उसे अपनी पीठ पर रख लेते हैं। इससे हमें चलने में सुविधा हो जाती है। पीठ स्थितिकरण अंग का प्रतीक है, क्योंकि गिरते हुये को सहारा देना ही तो स्थितिकरण है। हृदय शरीर का सातवाँ अंग है। जब हम आत्मीयता और प्रेम से भर जाते हैं, तब अपने आत्मीय को हृदय से लगा लेते हैं। हृदय वात्सल्य अंग का प्रतीक मस्तिष्क शरीर का आठवाँ अंग है। यह प्रभावना अंग का प्रतीक है, क्योंकि इसे हमेशा ऊँचा रखा जाता है। इसी प्रकार अपने आचरण और व्यवहार से जिनशासन की गरिमा और महिमा बढ़ाना, उसका प्रचार-प्रसार करना प्रभावना अंग है। इस प्रकार इन आठ अंगों के पूर्ण होने पर ही हमारा सम्यग्दर्शन निर्दोष रह पाता है, अन्यथा वह तो विकलांग की तरह अक्षम रहता है। श्री समन्तभद्र आचार्य ने रत्नकरण्ड-श्रावकाचार ग्रंथ में लिखा है नाङ्गहीन-मलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षर-न्यूनो, निहन्ति विषवेदनाम् ।। 21 ।। निःशंकित आदि किसी एक भी अंग के कम रहने पर सम्यग्दर्शन संसार परिपाटी का नाश करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि अक्षरहीन मन्त्र विष की पीड़ा का नाश नहीं करता है। आठों अंग पूर्ण होने पर ही सम्यग्दर्शन अपना सही-सही कार्य करता है। सम्यग्दृष्टि में संवेग, निर्वेग, निन्दा, गर्हा, प्रशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण पाये जाते हैं। 1 संवेग- रत्नत्रय रूप धर्म, जिनेश्वर कथित तथा गणधरादि प्रणीत शास्त्र, परिग्रह रहित रत्नत्रयधारक मुनिराज इनमें जो स्थिर अनुराग उत्पन्न होता है, उसे संवेग कहते हैं। 2 निर्वेग- विविध दुःखमय चतुर्गतिरूप संसार से डरना निर्वेग है। संसार से विरक्त भाव का होना निर्वेग कहलाता है। 3 निन्दा- जब आत्मा कषाय से व्याकुल होता है, तब वह निन्द्य कार्य v 453 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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