SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अगर इसके चिंतायें बना दूं, तो इसकी पहलवानी सब रह जायेगी। हाथी फिर न रोका जा सकेगा। राजा ने सोचा कि कोई-न-कोई चिंता इसके लगा दूँ | उस राजा ने उसको बुलाया, उसकी माँ को भी बुलाया। कहा कि उस मन्दिर में रोज चिराग चला दिया करो तो मेरे राज-कोष से तुम दोनों को खाने की अन्न सामग्री मिला करेगी। उसने स्वीकार कर लिया। अब उसे केवल दीपक जलाने की चिंता हो गयी। जब दोपहर हो जाती, तो शाम को चिराग जलाने की चिंता लग जाती है। केवल इतनी ही चिंता से उसका सारा बल घट गया। अब जब राजा का हाथी निकलता तो साँकल पर पैर रखकर वह दाबे तो हाथी झटका देकर चला जाता था। अब उसके पैर से दबाने का कुछ असर नहीं पड़ता। भैया! चिंता से केवल शारीरिक बल ही नष्ट होता है, ऐसा नहीं है। चिंता से आत्मबल भी क्षीण हो जाता है। सो भैया! चिंताओं को त्यागो। जब तक मोह है, तभी तक चिंता है। इन चिंताओं से छूटने के लिये सब प्रकार के मोह को त्यागकर अपनी आत्मा के निकट रहो, किसी भी चीज में मोह न रखो, क्योंकि वे सब पदार्थ तुमसे बिलकुल जुदा हैं। उनकी आशा न करो। उनमें मोह करने से पूरा न पड़ेगा। इसलिये बाह्य पदार्थों की चिंतायें छोड़कर अपने लिये आप स्वयं सुखी होवो। मोह में जीव को सर्वत्र मूढ़ता है और मोही जीव को सम्पदा के बीच में भी विपत्ति है। मोह है, इसलिए मोही कहा जाता है। वैसे तो मोह, मूढ़ता व अज्ञान सब एकार्थक हैं, किन्तु लोग मोही सुनकर तो बुरा नहीं मानते, लोग मूढ़ सुनकर बुरा मानते हैं, जबकि बात एक है। मूढ़ तो मोह करने से बना है, कुछ कहने से नहीं। एक आदमी था बेवकूफ । उसका नाम मूरखचन्द रख दिया लोगों ने । उसे सब लोग मूरखचंद कहते थे। वह गाँव के बाहर चला गया और रास्ते में एक कुँवा था उसमें पैर लटकाकर बैठ गया। इनते में एक आदमी निकला और उसे इस तरह देखा तो बोला-अरे मूरखचन्द! कहाँ बैठा है?उसने प्रेम से उसको गले लगाकर कहा-'कैसे आपने जाना कि मेरा नाम मूरखचंद है? किसने तुम्हें बताया कि मेरा नाम मूरखचन्द है?' वह मुसाफिर बोला कि तेरी करतूत ही बताती है कि DU 431 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy