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________________ देते? इन परपदार्थों की इच्छाओं में तो दुःख ही है । अतः अकल्याण करने वाली आशाओं को छोड़कर में आनन्द स्वरूप को देखूँ। अपने अनन्द-स्वरूप को देखने से ही आनन्द मिलेगा, दूसरी जगह आनन्द नहीं मिलेगा। यह प्रभू की शांत मुद्रामय मूर्ति दुनियाँ भर में यह बतला रही है कि विकल्प न करो, इसी प्रकार ज्ञानानुभव करो। इसी में हित है कि कोई विकल्प न करो। अपनी आत्मा में समाधि लगावो, ऐसा उपदेश यह प्रभु की मूर्ति देती है। यहाँ कोई स्थान अपने आने-जाने योग्य नहीं, इससे बद्ध आसन से बैठे रहो । यहाँ कुछ काम करने को नहीं है, सो हाथ पर हाथ रखकर समाधि लगा लो । दुनियाँ में कौन-सी ऐसी चीज है जो देखने लायक है ? कोई भी तो नहीं है। इसलिए नेत्रों को बंद कर लो। भगवान् की मूर्ति से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम यह भावना करें व यत्न करें कि बाह्य पदार्थों से जितना हट सकें, हटें। विकल्पों से निवृत्ति लेकर रहें तो उसमें भला है। सो मैं अब बाह्य पदार्थों की आशा को त्यागकर अपने आप सुखी होऊँ । पूर्ण व स्यापि कृत्यं की चिकिप्येंऽद्वन्द्वता कदा । न चे त्यक्त्वा हि सर्वाशां स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ।। किसी ने कोई काम किया तो वह जीव जैसा काम को करेगा, वैसी ही उत्कंठा रहेगी। उन कामों के कदाचित् हो जाने पर भी कुछ और करने की अभिलाषा जगती है। इस कारण यह बात ठीक रही कि किसी का काम पूर्ण हो गया तो भी उसे शांति नहीं मिलती, इससे ही यह साबित है कि काम पूरा किसी से नहीं होता और मोह अवस्था में काम किसी भी हालत में पूरा हो ही नहीं सकता । एक किवदन्ती है कि एक बार नारद जी सैर करने के लिए नर्क गये । वहाँ उनको खड़े होने तक को भी जगह न मिली। जैसे कि कभी जेल में खड़े रहने तक की गली नहीं मिलती है, वैसे ही नारद जी को वहाँ पर खड़े होने तक को जगह न मिली। वहाँ से वे भागे और उर्ध्वलोक की सैर करने गये। स्वर्ग की सैर करने गये। वहाँ पर वैकुण्ठ में देखा कि अकेले विष्णु जी महाराज बैठे हैं। नारद जी बोले- हे भगवान्! आप बड़े ही पक्षपाती हैं। नर्क में तो सारे-के-सारे 4232
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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