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________________ तो सब ग्रामवासी बोले- मालूम पड़ता है कि यह घोड़ा इन्होंने किसी से माँगा है, इनका स्वयं का नहीं है, जो दोनों-के-दोनों इसकी पीठ पर लदे हैं, मुफ्त का समझकर बेचारे पर दयाभाव नहीं रखते। बहुत विचारने के पश्चात् वे दोनों पैदल चलने लगे तथा घोड़ा साथ-साथ कर लिया। आगे चौथे गाँव में पहुंचने पर वहाँ के ग्रामवासी बोले कि ये कितने मूर्ख हैं कि स्वयं पैदल चल रहे हैं और घोड़ा ऐसे खाली चल रहा है? अतः, भैया! दूसरों से प्रशंसा की इच्छा रखना व्यामोह को प्रवृत्त करना है। ये धन, रुपया, ऐश्वर्य आदि अपने में ही परिणमन करते हैं। तब इनमें फिर क्यों मोह रखा जावे? हे प्राणियो! जैसा वस्तु का स्वरूप है, वैसा मान लो, तो फिर स्वयं ही सुखी हो जावोगे । भैया! सच्ची बात को सच मानने में क्या बुराई है? रत्नत्रय की पूर्णता क्रमशः होती है। जैसे जीवों को सम्यग्दर्शन होता है तो उन्हें तीन तैयारियाँ करना होती है। अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। ये क्रमशः होंगे। चारित्र को विकसित करने के लिए अणुव्रत धारण करना चाहिये। अब अपना ज्ञान इतना निर्मल बनाओ ताकि बाह्य पदार्थों में रागबुद्धि ही न जावे । रत्नत्रय को धारण करो और आत्मा का ध्यान करके सुखी होओ। जैसे जीवों को सम्यग्दर्शन होता है तो उन्हें तीन तैयारियाँ करना होती हैं। दुस्त्याज्या चेद्रतिस्त्यक्ता मृतत्यक्तकुटुम्बिनाम् । स्वातन्त्र्यं स्यानि किं स्वस्य स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ।।1-1711 जब मैंने मरे व छोड़े हुए कुटुम्बियों का दुस्त्याज्य (मुश्किल से छूट सकने योग्य) स्नेह छोड़ दिया, तो अब किसमें स्नेह करके अपनी स्वतन्त्रता नष्ट करूँ? अतः सर्व परपदार्थों से राग हटाकर अपने में अपने लिए अपने आप सुखी होऊँ। जो आज नहीं हैं अर्थात् मर चुके हैं या अलग हो गये हैं, उनमें मेरा सबसे अधिक स्नेह था, मोह था। अब जब वही छूट गये, तो इन छोटे-छोटे विषयों में क्या राग करना? जिस कुटुम्ब में जिससे भी सबसे अधिक मोह होता है, फिर एक-दो साल बीत जाने पर याद नहीं करते, तब कहाँ गया वह मोह? फिर जब आपने सबसे अधिक मोह को ही, ममता को ही छोड़ दिया, फिर इन अन्य बाह्य पदार्थों की ओर क्यों आकृष्ट होते हो? आखिर छूटेंगे तो ये सब भी एक-न-एक 0 4150
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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