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________________ हे जीव! तू पूर्ण वीतराग, स्वतंत्र, सिद्ध और शान्तिपूर्ण है। तू समतास्वभावी, अपने आप प्रसन्न रहनेवाला और पर से रहित है। बाह्य प्रवृत्तियों की तंरगों से आन्दोलित समस्त विभाव-भावों को त्याग कर निज स्वभाव में स्थिर हो जाओ। अपने सहजानन्द, ज्ञानस्वरूपी अनुभव में सदा स्वाधीन रहो। बाह्य से स्वाधीनता न कभी मिली और न मिलेगी। हे आत्मन! इष्टानिष्ट संयोगों की भारी भीड़ में रहकर हर्ष-विषाद मत कर। अपने में रहने वाली आत्मा पर में निजानन्द को प्राप्त नहीं कर सकती। यह सर्वोत्तम/श्रेष्ठ मान्यता है। अपने स्वभाव से जितना अधिक-से-अधिक लाभ लिया जा सके, ले लो। समय व्यर्थ मत जाने दो। यह समस्त परद्रव्य तो अपनी-अपनी सम्हाल कर लेंगे। तू स्वद्रव्य में लवलीन होकर उसी में सतत रमण कर । यदि एक बार भी पूर्ण शुद्ध हो जाये, तो फिर कभी भी अशुद्ध न होगा। स्वभाव से तू शुद्ध है, पर्याय से ही तेरी अशुद्ध दशा हो रही है। दृष्टि में संसार है और दृष्टि में ही मोक्ष है। ध्रुव स्वभाव पर जो दृष्टि है, वही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निर्मल दशा का कारण है। यह आत्मा अपने पुरुषार्थ से क्या-क्या नहीं कर सकता। यह आत्मा जब चाहे तब अपना कल्याण का पुरुषार्थ कर सकता है। जो जीव समस्त बाह्य प्रपंचों को त्याग कर, मन-वचन-काय गुप्तियों का पालन कर, वीतराग चारित्र का अवलम्बन लेता है, वह आत्मध्यान में लीन होकर, सुखामृत का पान कर, समस्त कर्म-शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है। यदि कोई बुद्धिमान मनुष्य विचार करे कि उसका कर्तव्य क्या है, जिसका साधन उसको करना चाहिए, तो यही कहना होगा कि यह मनुष्य जब निश्चय से आत्माराम है, तब उसका कर्तव्य है कि मिथ्यात्व को छोड़कर बहिरात्मा से अन्तरात्मा बने तथा सुख-शांति का समुद्र स्वयं आत्माराम है, ऐसा श्रद्धान कर उस ही समुद्र में अवगाहन करे। मिथ्यात्व संसार का मूल है। मिथ्यात्व वह कहलाता है कि जो बात जैसी नहीं है, उसको उस प्रकार माने। यह शरीर अपना नहीं है, पर इसे माने कि यह मैं हूँ, तो मिथ्यात्व है। परिजन, परिवार में नहीं हूँ। लेकिन उन्हें माने कि यह मैं हूँ, ये मेरे हैं, यह मिथ्यात्व है। भीतर में जो राग-द्वेषादिक कल्पनायें उठ रही हैं, सुख-दुःख उत्पन्न होता है, यह भाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। पर इन 0 410 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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