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________________ वह बोला- "नहीं।" तो फिर तुम्हें क्या दिख रहा है? वह बोला- "गुरुजी! मुझे केवल लाल मिर्च दिख रही है"। इसी प्रकार हमें भी सभी बाह्य पदार्थों से दृष्टि हटाकर केवल एक आत्मस्वरूप की ओर दृष्टि रखना चाहिये। यदि यह आत्मा राग-द्वेष, मोह को त्याग कर अपनी ओर देखे–जाने, तो अनुपम आनन्द का अनुभव हो। इस आत्मा में अनन्त शक्ति है। अपनी सामर्थ्य को प्रकट करने भर का विलम्ब है। यह आत्मतत्त्व आत्मनिरीक्षण से किट्ट कालिमा रहित, शुद्ध स्वर्ण सदृश, एकमात्र शुद्ध प्रतीत होता है। न उसका एक परमाणु मात्र अन्य द्रव्य में तथा न अन्य द्रव्य का एक परमाणु मात्र आत्मद्रव्य में मिला है, ऐसा चिन्मय, क्षेमकर, आनन्दघन आत्मा है। जिस प्रकार वन में दो बांसों के परस्पर घर्षण से अग्नि उत्पन्न होकर समस्त वन को जला देती है अथवा सुन्दर सूर्यकान्तमणि सूर्यरश्मियों के संयोग से पदार्थों को जला देता है या चन्द्रकांतमणि पर चन्द्रमा की किरणें पड़ने से सहसा जल स्रवित होने लगता है, इसी प्रकार आत्मा में भी समस्त कर्मरूपी वन को जलाकर भस्म कर देने की सामर्थ्य है। उसकी यह अनुपम शक्ति कर्मावरण से ढंकी है। यदि वह ध्यान के बल से व्यक्त हो जाये, तो वह समस्त कर्म क्षण मात्र में बारूद राशि सदृश एकदम नष्ट हो जायें। परमसार वस्तु जगत में एक आत्मा ही है, जो सर्व परभावों से रहित तथा निज शुद्ध स्वाभाविक गुणों से सम्पन्न है। इस शुद्ध आत्म में ज्ञानानंदरूपी अमृत ऐसा भरा हुआ है कि जिस अमृत के पान से सर्व संताप मिट जाते हैं, शान्ति और साम्यभाव जाग्रत हो जाता है। इस संसार में यदि कोई मसाला है जिसके द्वारा आत्मा की अशुद्धि दूर होवे, तो वह एक भावशुद्धि है। भावशुद्धि के द्वारा आत्मा अवश्य शुद्ध हो जाता है। भावशुद्धि के प्रताप से साधक को सुख-शान्ति का स्वाद आता है। भावशुद्धि के बल से ही अनेक महात्माओं ने अपनी शुद्धि प्राप्त की है। ज्ञाता-दृष्टा, अविनाशी आत्मा सर्व संकल्प-विकल्पों से रहित होकर जब निश्चिन्त बैठता है, तो यकायक वह एक परमानन्द के समुद्र में डूब जाता है। उस स्थान में जो शान्तिलाभ करता है, उसका वर्णन कोई नहीं कर सकता। 0 409
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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