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________________ सुखानुभव का लाभ होता है । धन्य हैं वे वीतरागी मुनिराज, जो इस रस को पीकर शान्ति लाभ करते हैं और अपने जीवन को सुखिया बनाते हैं । जगत एक नाटकशाला है । यहाँ पुद्गल और जीवों ने अपने-अपने विचित्र स्वांग बना रखे हैं, जो एक बड़ी भारी मनोहरता दिखा रहे हैं। आत्मस्वरूप को न जानने वाले जो व्यक्ति हैं, वे इन विचित्र दृश्यों में किसी में राग, किसी में द्वेष करते हैं। उनके मोहजाल में फँसकर उन्हीं के वश में हो उन्हीं को रिझाने वाली क्रिया किया करते हैं। परन्तु जो आत्मस्वरूप को जानते हैं, वे इन विचित्र दृश्यों को देखते हुये भी, जैसे चक्षु अग्नि को देखकर जलती नहीं, अमृत को देखकर संतोषित नहीं होती, ऐसे उनमें कुछ भी राग-द्वेष नहीं करते हैं। इसी से अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि अटूट भंडार के स्वामी बने हुये सदा आनंदित रहते हैं। वे जानते हैं कि मैं ही ईश्वर, परमात्मा, भगवान्, केवली, जिन बुद्ध, विष्णु, शंकर, ब्रह्मा हूँ। परम सुखदायी ज्ञानानंदी निजात्मा का दर्शन ही शिवमार्ग है। यह शिवमार्ग परमसरल, वक्रतारहित है। इस मार्ग में संकल्प-विकल्प रूप कांटे नहीं हैं। विकल्परहित अभेद रत्नत्रय की ज्योति से प्रकाशमान यह मार्ग परम शांत व सुखदायी है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है, यह व्यवहारदृष्टि से कहा जाता है, पर निश्चय से इन तीन स्वभाव रूप यह आत्मा ही है । यही सत्य पक्ष साक्षात् मोक्ष का सरल मार्ग है। मैं शुद्ध, बुद्ध, ज्ञाता - दृष्टा, अविनाशी, परम्ब्रह्मस्वरूप हूँ। मैं ऐसा ही हूँ, अन्य रूप नहीं हूँ । यही विश्वास सम्यग्दर्शन है। मैं ऐसे ही अपने स्वरूप में रमता हूँ, "पर" में नहीं, यही प्रवृत्ति सम्यक्चारित्र है। जो कोई आत्मा अपने स्वरूप संवेदन में उत्साहवान् है और स्वरूप प्राप्ति के लिये परम श्रद्धावान है, वह जब कषायों की संगत में नहीं रंगता, तब कर्मबंधनों को काटने की दृढ़ भावना करता है, उसे ही वीर कहना चाहिये। ऐसा ही वीर सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म तथा राग-द्वेषादि भावकर्मों से भिन्न श्रद्धता, जानता तथा अनुभवता है, तब श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र के बल से यह आत्मा सर्व प्रपंचजालों से रहित हो जब एक परम निर्मल आत्म-सरोवर में स्नान करता है । देखो, केवल जानने से आत्मकल्याण नहीं होता, उस पर चलने से आत्मकल्याण होता है। जो जानते हुये भी मोक्षमार्ग पर 405 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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