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________________ वाले हैं। इस प्रकार वेदक सम्यग्दृष्टि का श्रद्धान शिथिल होने के कारण आगाढ़ दोष से युक्त है। छह सर्वघाती प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम को प्रधानता देकर जब इसका वर्णन होता है, तब इसे क्षयोपशमिक कहते हैं और जब सम्यक्त्व प्रकृति के उदय की अपेक्षा वर्णन होता है, तब इसे वेदक सम्यग्दर्शन कहतें हैं । वेदक सम्यग्दर्शन चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है । दंसणमोहक्खवणा पट्ठवगो, कम्मभूमिजादो हु । - मणुसो केवलिमूले णिट्ठवगो, होदि सव्वत्थ | |64 || - गोम्टरसार (पी. का.) दर्शनमोहनीय की क्षपणा का आरम्भ कर्मभूमिज मनुष्य ही करता है और वह भी केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में । (स्वयं श्रुतकेवली हो जाने पर फिर केवली या श्रुतकेवली के सन्निधान की आवश्यकता नहीं रहती ) परन्तु इसका निष्ठापन चारों गतियों में हो सकता है। यह सम्यग्दर्शन वेदक सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है तथा चौथे से सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में हो सकता है। यह सादि - अनन्त है । होकर कभी छूटता नहीं है, जबकि औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन असंख्यात बार होकर छूट सकते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि या तो उसी भव में मोक्ष चला जाता है या दूसरे, तीसरे, चौथे भव में। वह इससे अधिक संसार में नहीं रहता । जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि बद्धायुष्य होने से नरक में जाता है अथवा देवगति में उत्पन्न होता है, वह वहाँ से मनुष्य होकर मोक्ष में जाता है । इसलिये वह तीसरे भव में मोक्ष जाता है और जो भोगभूमि में मनुष्य या तिर्यंच होता है, वह वहाँ से देवगति में जाता है और वहाँ से आकर मनुष्य हो मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार चौथे भव में उसका मोक्ष जाना बनता LU 398 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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