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________________ गाढ़ प्रतीति सो ही सम्यग्दर्शन है। आत्मा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन पाँच अनात्म द्रव्यों से विलक्षण अपने चित् लक्षण से दीप्तमान अस्तिमय पदार्थ है, ऐसा संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहित ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान है, कषाय कालिमा को मेटकरि और वीतराग भाव जमाकर अपनी ज्ञान चेतना में स्थिरता पाना सो सम्यक्चारित्र है । इन तीन स्वरूप आत्मा जब वर्तन करता है, तब आप ही निश्चय मोक्षमार्गी हो जाता है । उस समय यह आत्मा आप ही साधक होकर, अपने ही साध्य के लिए, आप ही साधन करता है, और सच्चा साधु होता हुआ तीन गुप्तिकी गुफा में बैठकर, एकाग्रता का आश्रय ले, आत्मिक ध्यान में एकतान होकर, अनुभव रस का पान करता हुआ, परमानन्द का लाभ करता है । मोह के जाल में उलझ रहा हुआ एक पुरुष इंद्रिय विषयरूप लालच में रंजायमान होता हुआ, रागी -द्वेषी होकर नाना प्रकार अजीव रूप कार्माण वर्गणाओं से लिप्त हो, इस चतुर्गतिरूप संसार में नाट की तरह अनेक भेष रणकर निराकुल सुख की तृष्णा में उसी तरह बारम्बार चक्कर लगाता और क्षोभित होता है, जिस तरह कि रेत के वन में हिरण अपनी प्यास बुझाने को सूर्य-किरण से चमकती हुई रेत में जल का आभास मान उसकी ओर दौड़ता है और वहां जल न पाकर आकुलित होकर दूसरी ओर फिर उसी भ्रम- बुद्धि से दौड़ता है और वहाँ से भी निराश होकर अपनी तृष्णा बुझाने के लिए भटक - भटककर महा दुःखी होता है । निश्चय नय से तीन लोक और अलोक के धनी की ऐसी नीच दशा जिस अजीव के संग से हुई है, उस अजीव को जब यह आगम, युक्ति, गुरुपदेश और स्वसंवेदन ज्ञान से, अपने से बिलकुल भिन्न अनुभव करता है और अपनी शक्ति की महिमा में लीन होता है, तब यह अपने निर्विकार, निरंजन, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म रहित अविनाशी, अस्तित्त्वादी साधारण और ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चारित्र आदि विशेष गुणों से युक्त परम शुद्ध जीवत्व नाम के पारिणामिक भाव के धारी स्वरूप को निर्मल दृष्टि से देखता है। इस स्वरूप अवलोकन में जो आनंद आता है, सुख है, जिसको अनुभव करते हुए जो शांति और सुख होता है, वह वचन अगोचर है। 387
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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