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________________ भिन्न आत्मा के ध्यान में ऐसे लीन हुये कि उसी अन्तर्मुहूर्त में इतनी अल्पवय में ही मुक्ति को प्राप्त कर लिया। आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने ज्ञानार्णव ग्रंथ में लिखा है अज्ञातस्वस्वरूपेण परमात्मा न बुध्यते। आत्मैव प्राग्विनिश्चेयो विज्ञातुं पुरं परम् ।। जिसने अपनी आत्मा का स्वरूप नहीं जाना वह पुरुष परमात्मा को नहीं जान सकता। इस कारण परमात्मा को जानने की इच्छा रखनेवाला पहिले अपनी आत्मा का ही निश्चय करे। ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने लिखा हैं सुखका अभिलाषी आत्मा जब अपने अनुभव से इस बात का अच्छी तरह विश्वास कर लेता है कि इंद्रिय-विषयों में राग-भाव सुखकारी नहीं, किन्तु दुःखकारी है तथा अपनी सुख-शांति की अवस्था में क्षोभ उपजाने वाला है। सच्चा सुख आत्मा का स्वभाव है, और वह आत्मा के ही विशेष गुणों में से एक गुण है। जब गुण गुणी से अलग नहीं होता, तब वह अपने उपयोग की चालको अपने शुद्ध स्वभावरूप वीतराग स्वरूप में ले जाने का बड़ी रुचि के साथ उद्यम करता है। यद्यपि अपने से भिन्न अनेक कार्य, जो कि चारों तरफ फैले हुए हैं, इस उद्यमशील आत्मा के उपयोग को स्वस्वरूप से छुड़ाकर अपनी ओर उपयुक्त होने के लिए निमित्त कारण होते हैं, तो भी परम विश्वास रूपी दृढ़ आश्रय के बल से, यह उत्साही प्राणी उनकी चाह न करता हुआ अपनी दृष्टि, अपनी श्रद्धारूपी भूमिका में ही रखता है। जब यह आत्मा अपनी शक्ति को संभाल अपनी चैतन्यमय भूमिका में स्थिर हो जाता है तब आस्रव चोर दूर से ही शंका करते हैं और वहाँ आ नहीं सकते। संवर का झण्डा गाड़े हुए यह चित्भूप अपनी अनन्त गुणमय राजधानी का राज्य करता हुआ अपने स्वरूप में ऐसा उन्मत्त हो रहा है कि इसके चित्त से पूजक और पूज्यभाव, ध्याता और ध्येयभाव तथा ज्ञाता और ज्ञेयभाव निकल गया है। यह अपने अनंत चतुष्टय स्वरूप और परम पारणमिक भाव का स्वतः स्वामी है, अतींद्रिय आनंद इसके हर एक प्रदेश का स्वत्व है, यह शुद्ध चैतन्य परिणति का ही कर्त्ता और भोक्ता है, शुद्धोपयोग की भूमिका में ही इसकी अबंध दशा है, ऐसी 0 386 D
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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