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________________ जब वह निर्दोष सीता को जंगल में छोड़ अपने अपराध की क्षमा माँग वापिस आने लगा, तब सीता जी उससे कहती हैं- सेनापति! मेरा एक संदेश उनसे (राम से) कह देना कि जिस प्रकार लोकापवाद के भय से आपने मुझे त्यागा है, उस प्रकार लोकापवाद के भय से धर्म को नहीं छोड़ देना। उस निराश्रित, अपमानित स्त्री को इतना विवेक बना रहा। इसका कारण था उनका सम्यग्दर्शन। (आजकल की स्त्री होती तो पचास गालियाँ सुनाती और अपने समानता के अधि कार बताती ।) इतना ही नहीं, सीता जब नारदजी के आयोजन द्वारा लवकुश के साथ अयोध्या आती हैं, एक वीरतापूर्ण युद्ध के बाद पिता-पुत्र का मिलाप होता है, सीता लज्जा से भरी हुई राजदरबार में पहुँचती हैं। उन्हें देखकर रामचन्द्र जी कहते हैं-आप बिना परीक्षा दिये यहाँ कैसे आई ? तुझे लज्जा नहीं आई? सीता ने विवेक और धैर्य के साथ उत्तर दिया कि मैं समझी थी कि आपका हृदय कोमल है, पर क्या कहूँ? आप मेरी जिस प्रकार चाहें परीक्षा ले लें। रामचन्द्र जी ने उत्तेजना में आकर कह दिया कि अच्छा अग्नि में कदकर अपनी सच्चाई की परीक्षा दो। बड़ी भारी जलती हुई अग्नि कुण्ड में कूदने के लिये सीता जी तैयार हुई। रामचन्द्र जी लक्ष्मण से कहते हैं, देखो, सीता जल न जाये । लक्ष्मण ने कुछ रोषपूर्ण शब्दों में उत्तर दिया कि यह आज्ञा देते समय न सोचा? वह सती है, निर्दोष है। आज आप इसके अखण्ड शील की महिमा देखिये। उसी समय दो देव केवली भगवान् की वंदना से लौट रहे थे। उनका ध्यान सीता का उपसर्ग दूर करने की ओर गया। सीता अग्निकुण्ड में कूद पड़ी और कूदने के साथ जो अतिशय हुआ सो सब जानते हैं। सीता ने कूदते समय कहा हे अग्नि! यदि मैं अपवित्र हूँ, तो तू मुझे क्या जलायेगी, मैं तो पहले ही जल गई और यदि मैं पवित्र हूँ, तो भी तू मुझे क्या जलायेगी, तुझमें मुझे जलाने की शक्ति ही नहीं है। सीता के कूदते ही अग्निकुण्ड जलकुण्ड बन गया, सिंहासन की रचना हो गई, चारों ओर सीता जी की जयजयकार होने लगी। सीता जी के चित्त में रामचन्द्र जी के कठोर शब्द सुनकर संसार से वैराग्य हो चुका था, पर 'निःशल्यो व्रती', को निःशल्य होना चाहिये। यदि बिना परीक्षा दिये मैं व्रत लेती हूँ, तो यह शल्य निरन्तर बनी रहेगी। इसलिये उन्होंने दीक्षा लेने से पहले परीक्षा देना आवश्यक 0 3800
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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