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________________ भेद विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन । अस्यैवा भावतो बद्धा, बद्धा ये किल केचन ।। जो भी जीव आज तक बंधे हैं, वे सभी बिना भेदविज्ञान से बंधे हैं और जितने भी जीव आज तक छूटे हैं, वे सभी भेदविज्ञान से ही छूटे हैं। शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न है, परन्तु मोह के नशे के कारण यह संसारी प्राणी अपनी चैतन्य आत्मा को नहीं पहचानता और इस पुद्गल शरीर को ही 'मैं' मान लेता है। वह सच्चे सुख को न पहचानकर इन्द्रिय विषयों में ही सुख ढूँढ़ता रहता है और मृगमरीचिका के समान भटक भटक कर अपनी अत्यन्त दुलर्भता से प्राप्त इस मनुष्यपर्याय को समाप्त कर देता है, परन्तु इसे रंचमात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं होती और अन्त में यह जीव आर्तध्यान व रौद्रध्यान से मरण कर नरक-तिर्यंच आदि खोटी योनियों में पहुँच जाता है। अपने स्वरूप को न समझ पाने के कारण उसका वर्तमान जीवन भी दुःखी व भविष्य का जीवन भी दुःखी रहता है। यदि सच्चा निराकुल सुख चाहिये हो, तो स्व व पर के भेद को समझो । सम्यग्दर्शन के लिये विश्व के अन्य पदार्थों, द्रव्यों को जानना आवश्यक नहीं है, केवल पर से भिन्न अपनी आत्मा को जानना ही पर्याप्त है। यह निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती है - एक बार क्षत्रिय और वैश्य में लड़ाई हो गयी क्षत्रिय को वैश्य ने हरा दिया। वैश्य क्षत्रिय की छाती (सीना) पर सवार हो गया। उसी समय क्षत्रिय ने वैश्य से पूछा - "तुम कौन हो?" वैश्य ने उत्तर दिया मैं वैश्य हूँ । क्षत्रिय ने सुनते ही उसे नीचे गिरा दिया । लड़ाई से पूर्व वह यह नहीं जानता था कि यह वैश्य है । उसी प्रकार आत्मा में अनन्त शक्ति है पर जब तक इस जीव को अपना परिचय प्राप्त नहीं होता तब तक कर्म इसे संसार में भटकाते रहते हैं । एक शेर सो रहा था। उस शेर की पूँछ पर आकर एक मक्खी बैठ गई, उस शेर के आसपास मच्छर भी मंडराने लगे, पर शेर सोया हुआ है। खरगोश के बच्चे ने देखा कि देखो मक्खियाँ और मच्छर कितने निर्भीक होकर शेर के पास घूम रहे हैं हम भी जायें और हम भी खेलें । वह खरगोश का बच्चा उछलता 3742
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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