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________________ चैतन्यस्वरूपी जीवराजा भी अपना स्वरूप भूलकर संसार रूपी कुँए में गिरता है। जब यह जीव शरीर से भिन्न अपनी चैतन्य स्वरूप आत्मा का ख्याल करता है, तब रत्नत्रय को धारण कर तीन लोक का राजा, परमात्मा बन जाता है। सम्यग्दर्शन स्व–पर की यथार्थ श्रृद्धा हो जाती है। अपना क्या है? और पराया क्या है? अपनी आत्मा है और आत्मा से भिन्न जो पदार्थ हैं वे अपने नहीं हैं, जब ऐसी सच्ची श्रद्धा होती है तब उसका जीवन सुधर जाता है। अज्ञान ही दुःख का कारण है और भेद-विज्ञान अर्थात् सच्चा ज्ञान ही उस दुःख से छूटने का उपाय है। ___ एक बार एक सेठ की हवेली में रंग-रोगन का कार्य चल रहा था। सायंकाल थोड़ा-सा लाल रंग बच गया। उसे लोटे में रखकर मिस्त्री ने सेठ की लड़की को दे दिया कि इसको सुरक्षित स्थान पर रख दो, सुबह हम ले लेंगे। लड़की ने वह लोटा ले जाकर सेठ जी के पलंग के नीचे रख दिया। सेठजी दकान से देर से आये और पलंग पर जाकर सो गये। सबह उठे और अंधेरे में पानी का लोटा समझकर रंग का लोटा लेकर शौच करने चले गये। शौच के बाद जब उठने लगे तो हाथों पर लाल रंग लगा देखकर खून समझ लिया और चिल्लाने लगे तथा असहाय होकर गिर पड़े। चार व्यक्तियों ने सेठ जी को उठाकर चारपाई पर लिटाया। वैद्य बुला लिये। इतने में कारीगरों ने आकर लड़की से रंग माँगा, तब उसे वहाँ वह लोटा नहीं मिला। लड़की ने कहा-पिता जी! आपने रंग का लोटा इस्तेमाल कर लिया, आपको कुछ नहीं हुआ, वह खून नहीं था, वह तो रंग था इतना सुनकर सेठ जी उठकर खड़े हो गये और बोले-बेटी! जल्दी मेरा टिफिन लाकर दो, मुझे दुकान जाना है, बहुत देर हो गई है। बस, यही दशा इस संसारी प्राणी की है। यह व्यर्थ ही अपने आपको भूलकर संसार में भ्रमण करता हुआ दुःख उठा रहा है – 'मोह महामद पियो अनादि, भूल आप को भरमत वादि। यदि इसे स्व-पर भेद विज्ञान हो जाये तो इसका संसार परिभ्रमण समाप्त हो जाये और दुःख दूर हो जाये । आचार्य अमृत चन्द्र स्वामी कलश 131 में लिखते हैं - 10 373_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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