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________________ यह दुष्परिणाम है कि यह जीव अभी तक संसार में डोल (भ्रमण कर रहा है। यदि शुद्ध स्वरूप का अनुभव हो जाये, तो यह शुद्ध आत्मतत्त्व इस शरीर के बन्धन से मुक्त हो जाये। इस जड़ शरीर में कोई सार नहीं है इस शरीर को असार झोपड़ी समझो और अपने आपको शुद्ध ज्ञानस्वरुप परमात्मतत्त्व समझो। जैसे किसी गाड़ी में गधा और ऊँट जोत दो या हाथी और गधा जोत दो, तो जैसी स्थिति होगी, ऐसी ही स्थिति मेरी भी बनाई जा रही है। कहाँ तो ऐसा शुद्ध परमात्मतत्त्व मैं हूँ, और कहाँ इस असार शरीर का बन्धन । दोनों का एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध होने पर भी दोनों अलग-अलग हैं। अतः सबको छोड़कर अपने को शुद्ध चैतन्य मात्र देखो। यदि बाह्य में ही फंसे रहे, तो बरबादी होगी। जगत के समस्त जीव बाह्य में ही पड़कर नष्ट हो रहे हैं। इस मायामय जगत के पीछे मोह में पड़कर मोही व्यर्थ बरबाद हो रहे हैं, हठ कर रहे हैं। बड़ा सोच करते हैं कि यदि हठ नहीं करें तो संसार के लोग क्या कहेंगे? देखो माया की हठ से इज्जत नहीं बढ़ती। हिंसा करें, मान करें, अन्याय करें, द्वेष करें, परिग्रही बने, तो क्या जीव महान हो गया? क्या जीव की इज्जत हो गयी? अरे, पाप किया और मर गए, मरकर कीड़े-मकोड़े हो गये, तो फिर क्या इज्जत रह गयी? अपने धर्म से, अपनी नीति से, स्वभाव से, आत्मदृष्टि से न चिगना यह सबसे बड़ी कमाई है। इससे इस लोक में सुख है और परलोक में भी सुख रहेगा। हे जीव! तू अपने स्वरूप को पहचान ले तो तू प्रभु हो सकता है, तू जगत से भिन्न हो सकता है। जिन्होनें जगत से भिन्न अपने आपको देखा है, वह जगत से भिन्न होकर भिन्न ही चलता रहेगा। और जो अपने को मिला हुआ देखता है, मैं साधु हूँ, मैं ऐसा बलिष्ठ हूँ, यह गृहस्थ है, यह साधु है, यह मनुष्य है, घर में रहता है, श्रावक है इत्यादि, तो वह इस जगत से मिला हुआ ही चलता रहेगा और आजीवन उसको क्लेश ही रहेंगे। उसे आत्मकल्याण की फिक्र नहीं रहेगी। सुकुमाल स्वामी, जिन्हें सरसों के दाने भी चुभते थे, उन्हें तीन दिन तक स्यालनी ने खाया, पर कोई कष्ट नहीं हुआ यदि मानते हो तो कष्ट है, और यदि न मानो, तो कोई कष्ट नहीं हैं। गृहस्थी में कष्ट नहीं मालूम होते, पर धर्म के कामों में कष्ट मालूम होते हैं। जहाँ मन नहीं लगता, वहाँ कष्टों का W 350 a
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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