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________________ इस चक्कर को तोड़ने का उपाय इस जीव ने न तो कभी समझा और न कभी किया। इसने कभी भी यह चेष्टा नहीं की, कि मैं निजरूप को जानूँ । यदि यह स्वयं को जान ले तो फिर कैसा भी कर्मजनित पार्ट क्यों न करना पड़े, उसमें अहंकार-ममकार होगा ही नहीं। चाहे जैसी भी बाह्य अवस्था हो, वह इसको दुःखी नहीं बना सकती। जब पार्ट ही करना है, तो चाहे जिसका करना पड़े, क्या फर्क पड़ता है? फिर भिखारी का पार्ट इसको दुःखी नहीं कर सकता और धनिक का पार्ट इसके अहंकार का कारण नहीं बन सकता। इसलिये सखी होने का, राग-द्वेष से रहित होने का उपाय अवस्थाओं में बदलाव लाना नहीं है अपितु अपने को जानना है, जिससे कि सभी प्रकार की अवस्थायें नाटक के रोल्स दिखने लगें। अपने को जानने के बाद भी संसार अवस्था तब तक चलती रहती है जब तक रत्नत्रय को धरण कर यह समस्त कर्मों को नष्ट नहीं कर देता। जीव की कर्मजनित अवस्थाओं की तुलना जिस प्रकार नाटक में होने वाले विभिन्न रोल्स से की गई है, उसी प्रकार उनकी समानता स्वप्न से भी की जा सकती है। संसारी जीव की कर्मजनित, परिवर्तनशील और नाशवान अवस्थायें स्वप्न की भाँति ही अर्थहीन और क्षणस्थायी हैं। कोई व्यक्ति जब तक स्वप्न देखता रहता है, तभी तक वह स्वप्न उसके लिये वास्तविक रहता है। परन्तु जैसे ही वह जागता है, वह स्वप्न वास्तविकता से विहीन स्वप्न मात्र रह जाता है। स्वप्न में उसकी जो भी अवस्थायें हुई थीं, वे दुःख-सुख का कारण नहीं रह जातीं। इसी प्रकार यह जीव अपने चैतन्य स्वरूप को जान जाये तो संसार में समस्त कार्य स्वप्नवत् हो जाते हैं, अर्थहीन हो जाते हैं। इसलिये दुःख दूर करने का उपाय सुखद स्वप्न लेना नहीं बल्कि स्वप्न से जागना है। सुखी होने का उपाय सच्चा ज्ञान और वैराग्य है। ज्ञान और वैराग्य जो आत्मा के लिये हितकारी हैं, उन्हें यह अज्ञानी जीव कष्ट देनेवाला मानता है। यह संवर तत्त्व की भूल है। ज्ञानी पुरुष संवर के साधनभूत परिणामों में रुचिवान होता है जबकि अज्ञानी जीव संवर के कारण ज्ञान और वैराग्य से दूर से ही डरता है। 032
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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