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________________ अकेला ही बुढ़ापे से बूढ़ा होता है। संसार को देखते हुये भी अपने कुटुम्बी जनों से जीव का मोह नहीं छूटता। इसका कारण यह है कि जीव अपने को अभी जान नहीं सका है। जिस समय वह अपनी शुद्ध चैतन्यमय आत्मा को जानता है उसी सयम उसे सभी वस्तुयें हेय प्रतीत होने लगती हैं। जीव और पुदगल की विकारी अवस्था रूप अनन्तानन्त वस्तुओं से संसार ओत-प्रोत है। विभाव परिणति से परिणत शरीर और आत्मा को एक मानने वाला एवं इष्ट अनिष्ट की कल्पना में लीन आत्मा बहिरात्मा है। अतः लोक में अवस्थित समस्त पर वस्तुओं से विमुख होकर एक मात्र अपने स्वरूप में परिपूर्ण निश्चल अभिरूचि ही सम्यग्दर्शन है। यह आत्मा कर्ममल रहित शुद्ध व महान परमात्मा के समान है। ऐसा जो श्रद्धान करना सो निश्चय सम्यग्दर्शन है। अपनी आत्मा को एकाकी देखें, इसमें न आठ कर्मों का बंधन है, न इसमें रागादि विकारी भाव हैं, न कोई शरीर है। यह आत्मा शुद्ध स्फटिकमणि के समान परम निर्मल है। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों का सागर है। आत्मीक आनन्द का स्वाद जिस साधन से हो वही मोक्ष का उपाय है। क्योंकि स्वानुभव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र तीनों ही गर्भित हैं अतः स्वानुभव ही निश्चय रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग है। उसी से नवीन कर्मों का संवर होता है व पुराने कर्मों की निर्जरा होती है। यही सीधी सड़क मोक्ष महल की तरफ गई है, इसके सिवाय कोई दूसरी सड़क नहीं है। शेष बाहरी साधन मन, वचन, काय को निराकुल करने के लिये हैं। जितनी मन में निराकुलता व निश्चिंतता अधिक होगी, उतना ही मन स्वानुभव में बाधक नहीं होगा। व्यवहार चारित्र की इसलिये आवश्यकता है कि मन, वचन, काय को वश में रखने की जरूरत है। जब तक ये तीनों चंचल रहेंगे तब तक आत्मा का ध्यान नहीं हो सकता। जो कोई इस भयानक संसार सागर से पार होना चाहे व कर्म ईंधन को जलाना चाहे तो उसे संयम धारण करके अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिये । आत्मा का ध्यान ही मोक्ष मार्ग है। श्री तत्त्वानुशासन ग्रंथ में लिखा है - जो वीतरागी आत्मा, आत्मा के भीतर, आत्मा के द्वारा, आत्मा को देखता है 0 309_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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