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________________ मेरी अक्ल पर पर्दा पड़ गया था, मेरा भाई तो बहुत धर्मात्मा था, वह चारित्रवान् भी था। विक्रम की फोटो लगा कर गद्दी पर बैठा देना । महाराज अगर चाहते तो पिंगला को जमीन में जिन्दा गड़वा देते, दरोगा को तोप के मुँह पर रख देते, परन्तु उन्हें तो निर्मल ज्ञान हो गया था । ऐसा ज्ञान भी उन्हें होता है जिसका उदय पलटा खाता है । मनुष्य से तो साधारण - सी वस्तु भी नहीं छोड़ी जाती, इच्छाओं का त्याग भी नहीं होता, तब राज्य और सम्पूर्ण वैभव को त्याग देना बहुत बड़ी बात है। भर्तृहरि वन में जाकर तपस्या करने लगे । अनादिकाल से मोह के उदय में इस जीव को अपने स्वरूप का भान नहीं है, वह परिग्रह में ही संलग्न है। उसी के संग्रह में आनन्द मानता है और उसके वियोग में दुःखी होता रहता है । पर के ऊपर "यह पर है" ऐसी दृष्टि नहीं है, किन्तु उसके स्वरूप में अपना ही स्वरूप देखता है। दोनों का भेदज्ञान उसे नहीं है । यह सुनिश्चित है कि परद्रव्य उसका कभी नहीं होगा। पर का परिणमन तो पर के अधीन है 1 अज्ञानीजन मोह से उसमें आत्मस्वरूप देखते हैं - यही उनके दुःख का मूल हेतु बन जाता है। इस भूल को दूर करने का ही उपदेश देते हैं कि हे भाई! इस अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह को त्याग दे । मिथ्यात्व, कषाय आदि अन्तरंग परिग्रह और धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह का त्याग ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति का उपाय है। ज्ञानी जीव स्वयं त्याग करता है और अज्ञानी जीव को परवश होकर छोड़ना पड़ता है। एक राजा अपने मंत्री के साथ शहर में घूमने निकला। मार्ग में एक कुंजड़ी मिली जो शाक - भाजी बेच रही थी । उसकी लड़की बड़ी सुन्दर थी । दैवयोग से वह उस दुकान पर बैठी थी कि बादशाह का मन उस लड़की से निकाह करने का हो गया। उसने मंत्री से कहा- इस लड़की की शादी हमसे होना चाहिए। मंत्री बोला- 'क्या बड़ी बात है ? महाराज! हो जाएगी। बादशाह तो अपने महल चला गया। मंत्री उस कुंजड़ी के पास आया और कहने लगा- तुम अपनी लड़की की शादी बादशाह के साथ कर दो। बहुत जेवर, माल मिलेगा और वहाँ वह अच्छी तरह रहेगी। अच्छा खाना, पहनना मिलेगा। तुम्हारे बड़े भाग्य, जो बादशाह ने ऐसी इच्छा जाहिर की । DU 284 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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