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________________ प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में करणत्रयवर्ती विशुद्ध परिणाम युक्त मिथ्यादृष्टि से असंयत सम्यग्दृष्टि के कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है, उससे देशव्रति श्रावक की एसंख्यातगुणी निर्जरा होती है, उससे महाव्रती मुनियों के असंख्यात गुणी निर्जरा होती है उससे उपशम श्रेणी वाले तीन गुणस्थानों में असंख्यात गुणी होती है, उससे उपशांत मोह (ग्यारहवें ) गुणस्थान वाले के असंख्यात गुणी होती है, उससे क्षपक श्रेणी वाले तीन गुणस्थानों में असंख्यात गुणी होती है, उससे क्षीणमोह (बारहवे ) गुणस्थान में असंख्यात गुणी होती है, उससे सयोग केवली के असंख्यात गुणी होती है, उससे अयोगकेवली के संख्यात गुणी होती है। ये ऊपर-ऊपर असंख्यात गुणाकार हैं, उसलिए इनको गुणश्रेणी निर्जरा कहते हैं। आचार्य शुभचन्द्र महाराज 'ज्ञानार्णव' ग्रंथ में कहते हैं ध्यानानलसमालीढमप्यनादिसमुद् भवम् । सद्यः प्रक्षीयते कर्मशुद्धयत्यङ्गी सर्ववत्।। यद्यपि कर्म अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुए हैं, तथापि वे ध्यानरूपी अग्नि से स्पर्श होने पर तत्काल ही आत्मा से विलग हो जाते हैं । उनके आत्मा से विलग हो जाने से जैसे अग्नि के ताप से सुवर्ण शुद्ध होता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी तप से कर्म को आत्मा से विलग करके शुद्ध (मुक्त) हो जाता है । आचार्य उमास्वामी महाराज ने सूत्र दिया है- "तपसः निर्जरा च ।" तप के द्वारा संवर और निर्जरा दोनों होते हैं। 12 प्रकार के तपों का वर्णन उत्तम तप धर्म के अन्तर्गत किया गया है। मुनिराज इन तपों के माध्यम से अनेक जन्मों में बंध कर्मों को आत्मा से विलग भर में नष्ट कर देते हैं। आचार्य शांतिसागर महाराज ने एक दिन विधि ले ली, कि किसी सेठ के द्वार पर माणिक्य बिखरे मिलेंगे तब आहार करूँगा । ओहो ! माणिक्यों को पेटी के अन्दर पेटी और डिब्बी के अन्दर डिब्बी और मखमल के अन्दर ताले में रखा जाता है। किन्तु वे सड़क पर मिलना चाहिए । अब कल्पना करो, मिलेंगे कब ? लेकिन चिन्ता नहीं करो । विधि है तो मिलन होता ही है। एक दिन हो गया, वे मुनिराज निकल गये, आहार नहीं हुये। श्रावकों में 255 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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