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________________ 7 कर या खड़े होकर ध्यान लगाना। जैसे कभी धूप में आतापन योग धारण करना और कभी शीत में नदी किनारे ध्यान करना। प्रायश्चित- अपने व्रतों में कोई अतिचार होने पर उसका दण्ड लेकर स्वयं को शुद्ध करना। 8. विनय- सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा तप इन चारों का और इनके धारण करने वालों का आदर करना। वैयावृत्य- पूज्यपुरुषों की भक्तिपूर्वक सेवा, चाकरी तथा टहल करना। स्वाध्याय- शास्त्रों का पढ़ना, विचारना, मनन करना, कण्ठस्थ करना और धर्मोपदेश देना। 11. व्युत्सर्ग- शरीर से, सांसारिक भोगों तथा परपदार्थों से विशेष ममत्व का त्यागना। 12. ध्यान- समस्त चिन्ताओं का निरोध करके धर्म या आत्म चिंतवन में एकाग्र होने का नाम ध्यान है। हम बारह व्रतों का पालन करते हुए जितने अंशों में वीतराग भाव होंने उतने अंशों में कर्मों की निर्जरा होगी। वीतराग भावों की प्रबलता से कभी-कभी अनेक जन्मों के बांधे हुए पापकर्म क्षणमात्र में क्षय हो जाते हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्यग्रंथाराज समयसार'जी में कहते हैं रत्तो बंधदि कम्म, मुंचदि जीवो विराग सम्पत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।। रागी जीव कर्मों को बांधता है, वीतरागी जीव कर्मों से छूट जाता है, ऐसा श्री जिनेन्द्र प्रभु ने कहा है, इसलिए शुभ व अशुभ कर्मों से राग द्वेष मत करो। जो समसोक्खणिलीणो, बारबारं सरेइ अप्पाणं। इन्दियकसायविजई, सस्स हवेणिज्जरां परम ।। जो मुनि साम्यरूप सुख में लीन होकर बार-बार आत्मा का स्मरण करता है तथा इन्द्रिय और कषायों को जीतता है, उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है। गुणश्रेणी निर्जरा को बताते हुए स्वामी कार्तिकेय महाराज 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' की गाथा 106, 107, 108 में लिखते हैं 0 2540
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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