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________________ मानकर उनका सेवन करते हैं। जिसने आत्मा को देहरूप माना, उसने अपने को अजीव माना। शरीर और आत्मा को एक दूसरे में मिलाकर दोनों को एक मानता है, ऐसी जीव - अजीव की भूल जीव अनादिकाल से कर रहा है। जीव और अजीव दोनों अत्यन्त भिन्न होने पर भी वह उनको भिन्न नहीं जानता । देह तो संयोगी वस्तु है, उसका वियोग अवश्य होगा । हे जीव ! इस देह का संयोग होने के पहले तेरा अस्तित्व था और देह के वियोग के बाद भी तेरा अस्तित्व रहेगा। तू तो अजर-अमर जीवतत्त्व है । जन्म-मरण तो देह के संयोग-वियोग की अपेक्षा से हैं। जीव स्वयं अपने उपयोगस्वरूप से नित्य टिकनेवाला है। उसका न जन्म है, न मरण है। तुम नित्य हो, जबकि देह क्षणभंगुर । तुम चैतन्यस्वरूपी हो और देह जड़ है। इन दोनों में एकता कैसी? दोनों अत्यन्त भिन्न हैं। तभी तो जीव के चले जाने पर देह को जला देते हैं । परन्तु अज्ञानी देह की उत्पत्ति में अपनी उत्पत्ति और देह के नाश में अपना नाश मानता है। यह अजीव तत्त्व की भूल है। आचार्य समझाते हैं कि सुख - दुःख का अनुभव तो चैतन्य आत्मा को होता है, शरीर को सुख - दुःख का अनुभव नहीं होता है। ज्ञान, शिक्षा की चैतन्य आत्मा में होती है, शरीरादि में नहीं होती है। मैं शरीर का नहीं, शरीर मेरा नहीं। मैं तो केवल एक ज्ञान मात्र चैतन्य स्वरूपी आत्मा हूँ। जीवादि तत्त्वों का जैसा स्वरूप है, वैसा ही पहचानकर श्रद्धान करे, तभी जीव का मिथ्यात्व छूटता है और दुःख मिटता है । जैसे कोई जीव मोह से मुग्ध होकर मुर्दे को जीवित समझ ले या उसको जिलाना चाहे, तो इससे वह स्वयं दुःखी होगा। मुर्दा कभी जीवित नहीं होगा और न ही उसका दुःख मिटेगा । रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी के मृत शरीर को लेकर छः माह तक घूमते रहे, क्योंकि वे उसे मरा हुआ नहीं मानते थे। उन्होंने किन्ही महाराज से दुःख दूर होने का उपाय पूछा, तो महाराज ने कहा कि जब तक तुम इस मृत शरीर को मृत नहीं समझोगे, तब तक तुम्हारा दुःख दूर नहीं होगा । लक्ष्मण जी मर चुके हैं, अब जीवित नहीं होंगे। मृतक को मृतक ही जानना और उसको जिलाया नहीं जा - ऐसा समझना ही दुःख दूर होने का उपाय है । सकता - 24 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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