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________________ कर्म बंधते समय जीव के जैसे विचार, वचन या शरीर की क्रिया होती है, उसी के अनुकूल उनमें शुभ-अशुभ प्रकृति की छाप लग जाती है तथा उस समय जैसे तीव्र या मंद कषाय भाव होते हैं, उसी तरह का तीव्र या मंद रस और स्थिति उनमें अंकित हो जाती है। जब उन कर्मों का उदय होता है, तब वे अपनी प्रकृति और रस के अनुसार जीव को फल देते हैं। ___ जैसे हम भोजन को मुख में रखकर दाँतों से चबाकर निगल जाते हैं वह भोजन पेट में पहुँचकर हमारी जठराग्नि की शक्ति अनुसार तथा अपनी प्रकृति के अनुसार रस, खून, मांस, हड्डी, चर्बी, वीर्य आदि धातु उपधातु बन जाता है, इसी तरह योगों द्वारा ग्रहण की गई कार्माण वर्गणायें कषाय की सहायता से जीव के लिये विविध सुख-दुःखरूप परिणत हो जाती हैं। पण्डित श्री दौलतराम जी ने लिखा है ये ही आतम को दुःख कारण, तातै इनको तजिये। __जीव प्रदेश बँधे विध सौं, सो बन्धन कबहुँ न सजिये।। ये मिथ्यात्वादि ही आत्मा को दुःख के कारण हैं, इसलिये इन मिथ्यात्वादि को छोड़ देना चाहिये। इन्ही भावों के कारण जीव (आत्मा) के । ___ के प्रदेशों और कर्म के परमाणुओं का परस्पर एकमेक हो जाना (मिल जाना) बन्ध कहलाता है। इन आस्रव-बन्ध के कारण ही जीव चारों गतियों में भ्रमण करता हुआ दुःख उठा रहा है। अतः वह बन्ध कभी नहीं करना चहिये। मनुष्य के सामने शराब और शर्बत दोनों पदार्थ रखे हुए हैं, मनुष्य अपनी इच्छानुसार दोनों में से किसी को भी पी सकता है। पीने से पहले उसको स्वतंत्रता है, किन्तु पी लेने के बाद उसकी इच्छा कुछ परिवर्तन नहीं कर सकती। अतः शराब यदि पी ली है, तो मनुष्य को न चाहते हुए भी नशा अवश्य आवेगा, शराब का असर उसे भुगतना होगा। इसी तरह कर्म बांधने से पहले जीव स्वतंत्र रहता है कि आगामी कर्मबंध कैसा भी करे। अच्छे विचार, वचन और कार्यों से शुभ कर्म (सौभाग्य) भी बना सकता है और अशुभ विचार, वचन, कार्यों द्वारा अपने भविष्य के लिये दुर्दैव (अभाग्य) भी बन सकता है। दुर्दैव बना लेने के बाद उसकी स्वतंत्रता उस कर्म के विषय में नहीं रहने पाती। उसका तो 0 2000
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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