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________________ कृतकर्मक्षयो नास्ति, कल्पकोटिशतैरपि। अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् ।। यानि उपार्जन किया हुआ शुभ या अशुभ कर्म चिरकाल बीत जाने पर भी व्यर्थ नहीं जाता। उसका शुभ या अशुभ फल संसारी जीव को अवश्य भोगना पड़ता है। ___कर्मों की ऐसी विचित्र लीला केवल प्राचीन कथाओं में ही नहीं मिलती है, बल्कि यह तो संसार में सदा सब के साथ हुआ करती है। जिस तरह नाटकघर में कर्णधार (नाटकघर के स्वामी) के संकेत पर अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अनेक प्रकार के अभिनय दिखाने के लिये विविध स्वांग बनाकर अनेक लीलाएँ दिखाती हैं। जो अभिनेता कुछ समय पहले राजा बनकर नाटक दिखलाता है, वही व्यक्ति थोड़ी देर पीछे कर्णधार की आज्ञा से रंक बन जाता है और रंक का अभिनय सबको दिखलाता है। इसी तरह संसार की इस विशाल रंगभूमि में ये अनन्त संसारी प्राणी कर्म के संकेत पर कठपुतलियों की तरह अनेक तरह के रूप बनाकर नाटक दिखा रहे हैं। जब तक कर्म की चाबुक संसारी जीव पर पड़ती रहेगी, तब तक इस जीव को कर्म के इशारे पर नाचना ही पड़ेगा। यह दैव-दुर्दैव, सौभाग्य-दुर्भाग्य क्या बला है? इस प्रश्न का समाधान जिनवाणी में बहुत विस्तार के साथ किया गया है। जैसे अनादिकालीन किसी सुवर्ण खान में सोना पत्थर के साथ मिला हुआ चला आ रहा है, तदनुसार संसारी जीव भी अनादिकाल से कर्मबन्धन से बँधा हुआ चला आ रहा है। अपनी योगक्रिया से प्रत्येक संसारी जीव प्रतिसमय नवीन कर्मबंध करता रहता है और प्रतिसमय पुराना कर्म अपना शुभ-अशुभ फल जीव को देकर जीव से पृथक् होता रहता है। इस बंध तथा सविपाक निर्जरा का क्रम सदा चलता रहता है। अतः यद्यपि अनादिकाल का कोई भी कर्म किसी जीव के साथ बंधा हुआ नहीं है, परन्तु अनादिकाल से लेकर अब तक एक भी समय कभी ऐसा नहीं आया जबकि कोई भी संसारी क्षणभर भी कर्मशून्य पूर्ण शुद्ध रहा हो। 0 199_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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