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________________ आये, यह तो संभव नहीं है। परिग्रह और आरम्भ को तजकर इस वीतराग धर्म की उपासना की जाती है, इसी के मायने है साधु होना । जो इतना ऊँचा काम नहीं कर सकता, वह परिग्रह और आरम्भ की वासना तजने के लिये व्यवहार ध ार्म की क्रियायें करता है। प्रथम अवस्था में चित्त को स्थिर करने के लिये विषय-कषायरूप खोटे अशुभ भावों को रोकने के लिये शुभोपयोग प्रयोजनवान् है । बाद में चित्त के स्थिर होने पर साक्षात् मुक्ति का कारण जो निज शुद्वात्मतत्त्व है, वही ध्यावने योग्य है। जिन ज्ञानियों ने आत्मतत्त्व को समझ लिया है, उन्हें अपनी शान्ति के अतिरिक्त दूसरी वस्तु नहीं रुचती । ज्ञानी शुभ क्रियाओं को करते हुये भी वीतरागता का ही लक्ष्य रखता है। जो व्यक्ति इन क्रियाओं को करते हुये भी आत्मा में चित्त नहीं लगाता, वह ऐसे जानना कि जैसे किसी ने कण रहित बहुत भूसे का ढेर इकट्ठा कर लिया हो। उसकी वे क्रियायें वीतरागता की कारण भी नहीं हैं। व्यवहारनय से देखो तो आत्मा बँधा हुआ दिखता है, निश्चय दृष्टि से देखो तो यह किसी से बँधा हुआ नहीं है। एक नय से बँधा हुआ और एक नय से सदा अबंध-छूटा हुआ है। ऐसे ये अपने दोनों पक्ष अनादिकाल से धारण किये हुये हैं। एक नय कर्मसहित और एक नय कर्मरहित कहता है। जो जिस नय से जैसा कहा है, वैसा है। जो बंधा हुआ तथा खुला हुआ दोनों ही बातों को मानता है और दोनों का अभिप्राय समझता है, वही सम्यग्ज्ञानी जीव का स्वरूप जानता है । जो नयवाद के झगड़े से रहित हैं, असत्य, खेद, चिन्ता, आकुलता आदि को हृदय से हटा देते हैं और हमेशा शांतभाव रखते हैं, गुण-गुणी के भेद विकल्प भी नहीं करते, वे वीतरागी मुनिराज संसार में आत्मा का ध्यान करके पूर्ण ज्ञानामृत का स्वाद लेते हैं। आस्रव तत्त्व को न जानने के कारण यह जीव राग-द्वेष करके कर्मों का आस्रव करता रहता है और कर्मरूपी चोर इसे चारों ओर से लूटते रहते हैं। "कर्म 1872
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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