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________________ कौतूहलवश होकर मान ले। यदि तुझे हमारी बात सत्य न झुंचे, तो छोड़ देना। एक बार मान तो ले । क्या मान ले ? यह मान ले कि शरीर तूं नहीं है, शरीर तेरा नहीं है, वह तेरा पड़ोसी ही है। ___ यदि तू ऐसा मानकर चलेगा तो तुम्हें तत्काल अपने ज्ञानानन्द-विलासी आत्मा का बोध हा जायेगा। यदि एक बार भी सत्य का दर्शन हो गया, तो तेरा उद्धार हो जायेगा। ___मन, वचन, काय की चेष्टा का नाम योग है। जब तक अशुभ 'योग' रहेगा, तब तक अशुभ कर्मप्रकृतियों का आस्रव होगा और जब शुभ योग होगा तो शुभ कर्मप्रकृतियों का आस्रव होगा। लेकिन योग जब तक रहेगा, तब तक वह आस्रव करायेगा ही। व्रत से पुण्यकर्म का और अव्रत से पापकर्म का आस्रव होता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से निवृत्ति होने को जिनेन्द्र भगवान 'व्रत' कहते हैं। पापों से एकदेश निवृत्ति को 'अणुव्रत' तथा सर्वदेश निवृत्ति होने को 'महाव्रत' कहते हैं। हिंसादि पापों के कारण इस लोक में अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं तथा ये परलोक में पापबन्ध के हेतु हैं। ये हिंसादि स्वयं दुःखरूप हैं, दुःखों के कारण हैं और दुःखों के कारणों के कारण हैं, इसलिये दुःख ही हैं। अतः इनको छोड़कर व्रतों को धारण करना चाहिये। पापक्रियायें अशुभ आस्रव का कारण हैं और पुण्यक्रियायें शुभ आस्रव का कारण हैं। ज्ञानी जीव का लक्ष्य निर्विकल्प शान्ति (शुद्धोपयोग) की प्राप्ति का होता है, अतः वह चाहता है कि अशुभ व शुभ कोई क्रिया न करना पड़े तो अच्छा है, पर वर्तमान की इस अल्प स्थिति में वह अधिक समय तक स्वभाव में स्थिर नहीं रह पाता, इसलिये अशुभ राग से बचने के लिये वह भोगाभिलाष से निरपेक्ष, केवल शान्ति की अभिलाषा रखकर, शुभ क्रियाओं को करता है। उसकी ये क्रियायें पुण्यानुबन्धी पुण्य कहलाती हैं। इस संसारी प्राणी का मन बड़ा चंचल होता है। वह कभी शान्त नहीं 0 1820
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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