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________________ है, वह स्वयं मैं ही हूँ। मेरा स्वरूप वीतराग है, मेरी आत्मा आनंदमय है, मेरा भाव शुद्धोपयोग है। आँखों से दिखने वाले ये समस्त पदार्थ पुद्गल हैं, अतः जड़ हैं; इनको अपना मानने की पुरानी कुटेव को छोड़ो और इनसे भिन्न अपनी चैतन्य आत्मा को पहचानो। धर्म और अधर्म द्रव्य - धर्मद्रव्य जीव तथा पुद्गल को गमन करने में सहायक होता है तथा अधर्म द्रव्य इन दोनों को ठहरने में सहायक होता है। धर्म तथा अधर्म द्रव्य जीव तथा पुद्गल को मात्र सहायक ही होते हैं, अपना कोई स्वतंत्र कार्य नहीं करते। इनकी सहायता का अर्थ यह न समझना कि ये जीव तथा पुद्गल को जबरदस्ती चलाते या ठहराते हैं। स्वतंत्रता से जीव तथा पुद्गल जब स्वयं चलना या ठहरना चाहें तो ये द्रव्य सहायक मात्र होते हैं। अर्थात् ये उन्हें जबरदस्ती न चलाते हैं, न ठहराते हैं, परन्त इतना अवश्य है कि यदि ये न हों तो वे पदार्थ चल या ठहर नहीं सकते। जैसे कि मछली पानी में चलती है, वहाँ पानी उसे जबरदस्ती चलाता हो ऐसा नहीं है। मछली स्वतंत्रता से स्वयं ही चलती है, परन्तु यदि जल न हो तो चलना चाहकर भी वह चल नहीं सकती। इसी प्रकार गर्मी के दिनों में धूप में चलता हुआ पथिक वृक्ष के नीचे विश्राम करने ठहर जाता है। वहाँ वृक्ष उसे जबरदस्ती नहीं ठहराता, पथिक स्वतंत्र रूप से स्वयं ठहरता है। यहाँ जीव तथा पुद्गल के लिये धर्म द्रव्य को ऐसा समझो जैसे मछली को पानी और अधर्म द्रव्य को ऐसा समझो जैसे कि पथिक को वृक्ष । धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्यों का आकार जीव द्रव्य की भांति लोकाकाश जितना है। अतः इनके प्रदेशों की संख्या लोकाकाश के समान असंख्यात है। इन द्रव्यों के सीमित आकार के कारण ही जीव तथा पुद्गल लोक की सीमा का उल्लंघन करके अलोक में नहीं जा सकते। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि शरीर से मुक्त हो जाने पर आत्मा सदा ऊपर-ऊपर को चढ़ता ही चला जाता है और कभी भी ठहरता नहीं है। अनन्तों आत्मायें जो आज तक मुक्त हो चुकी हैं वे अब तक भी बराबर ऊपर को ही चली जा रही हैं उनके इस चलने का अंत कभी न आयेगा। क्योंकि आकाश का कहीं भी अंत नहीं है। परन्तु उनकी यह धारणा 0 1650
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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