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________________ शरीर हृष्ट-पुष्ट हो तो जीव मान लेता है कि मैं बलवान हूँ, परन्तु यह मिथ्या मान्यता है। शरीर के बलवान होने से आत्मा बलवान नहीं होती। अमूर्त आत्मा और मूर्तिक शरीर दोनों भिन्न-भिन्न हैं। बीस साल का युवक जो अपने दोनों हाथों से दो व्यक्तियों को ऊपर उठा लेता था, वही जब मरण के सम्मुख हुआ, तब उसमें कुछ बोलने की भी शक्ति न रही और दूसरे दो व्यक्तियों ने उसे उठाया। देह का बल आत्मा का कहाँ है ? और देह के निर्बल होने पर आत्मा कहाँ निर्बल हो जाता है ? हिन्दुस्तान का एक बड़ा पहलवान-जो दौड़ती मोटरगाड़ी को पकड़कर रोक देता था और अपने सीने पर हाथी को चलाता था, उसमें मृत्यु के समय अपने मुँह पर बैठी मक्खी को उड़ाने की भी ताकत नहीं रही। कहाँ गया उसका बल? वह बल आत्मा का था ही नहीं। आत्मा के गुण तो ज्ञान-दर्शन आदि हैं, जो कभी भी नष्ट नहीं हो सकते। शरीर बलवान हो, सुन्दर हो या कुरूप हो, उन सबसे आत्मा भिन्न है। आत्मा का चेतनस्वरूप ही सुन्दर है। परन्तु अपने सुन्दर निजरूप को न देखकर अज्ञानी शरीर की सुन्दरता से अपनी शोभा मानते हैं और शरीर के कुरूप होने पर अपने को हीन समझते हैं। उसे आचार्य समझा रहे हैं। कुरूप शरीर केवलज्ञान प्राप्त करने में कोई विघ्न नहीं करता। सुन्दर रूप वाले जीव भी पाप करके नरक चले गये और कुरूप शरीर वाले भी अनेक जीव आत्मा का ध्यान करके मोक्ष चले गये। शरीरादि संयोगों को अपना मानना इस जीव की बहुत बड़ी भूल है। यदि मनुष्य होकर जैन होकर, भी अजीव से भिन्न अपनी पहचान नहीं की और धन-सम्पत्ति जोड़ने में ही इस दुर्लभ पर्याय को समाप्त कर दिया, तो यह स्वयं के प्रति सबसे बड़ा अन्याय होगा। जो धन-पैसे का तीव्र मोह रखते हैं, वे मरकर उसी धन में साँप बनकर पैदा हो जाते हैं। आप कहते हो बंगला मेरा है, घर मेरा है, परन्तु वह तो मिट्टी का है, जबकि आपका घर तो चैतन्यमय है। चैतन्य धाम में आपका वास है, जड़ ईंटों के ढेर में आपका वास नहीं है। चैतन्यमय निजघर को भूलकर पर घर में पत्थर के मकान में, झोपड़े में जीव अपनेपन की बुद्धि करता है और मोह से संसार में रुलता है – बार-बार 0 16_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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