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________________ को न पहचानकर अज्ञानी देह को ही जीव मान लेते हैं और देह की अवस्थाओं को ही अपनी अवस्था मान लेते हैं । मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन ।। छहढाला ।। मैं चैतन्यमयी उपयोगस्वरूप हूँ, यह भूलकर अज्ञानी जीव अपने को शरीररूप मानता है, अतः शरीरसंबंधी स्त्री- पुत्रादि पदार्थों को भी वह अपना मानता है । शरीर की अवस्था को लेकर, मैं बलवान या मैं दीन, ऐसा मानता है, धन, गृह, गाय, भैंस, पुत्र-पुत्रादि ये सब मेरे ही । शरीर अच्छा हो तब मैं सुखी और शरीर रोगी हो तब मैं दुःखी, ऐसा मानता है, परन्तु शरीर की जाति तो जड़ है, आप तो चैतन्य जाति के हो । आपकी चैतन्य जाति स्वयं सुखस्वरूप है, परन्तु मिथ्यात्व के कारण अपनी चैतन्य जाति को भूलकर, देह की जाति को अपनी मानकर व्यर्थ दुःखी हो रहे हो । सुख तो आत्मा में ही है, देह में सुख नहीं देह, स्त्री, धन, बंगला, मोटर आदि में सुख मानना वह तो मिथ्या कल्पना है। I I जिस प्रकार रेत में से तेल नहीं निकलता, पत्थर पर घास नहीं उगती, मरा हुआ पशु घास नहीं खाता, उसी प्रकार ये जड़ पदार्थ आत्मा के नहीं हो सकते। ये जड़ पदार्थ अचेतन हैं और आत्मा चेतन है । दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है । पर अपने चैतन्यस्वरूप को न जानने के कारण संसारी प्राणी स्त्री, पुत्र, मकान, दुकान आदि को अपने मानकर व्यर्थ दुःखी होते हैं और संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । वास्तव में जिन स्त्री- पुत्रादि को जीव अपना मानते हैं, वे अपने हैं ही नहीं । जहाँ यह पास में रहने वाला शरीर ही अपना नहीं है, तब दूर रहने वाले परद्रव्य अपने कैसे हो सकते हैं? यह अज्ञानी संसारी प्राणी देहबुद्धि से हो-हल्ला मचा कर मिथ्यात्व का सेवन करते हैं, किन्तु अपने स्वतत्त्व की सम्भाल नहीं करते । जड़ के संयोग से मैं राजा या रंक- ये दोनों मान्यता मिथ्या हैं। असंगी चैतन्य को भूलकर परसंग को अपना मानने से जीव दुःखी होता है । 15 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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