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________________ भगवान् ने अपने श्रावकों को दिये हैं। पर इस पंचमकाल के श्रावक कुछ ज्यादा ही होशियार हो गये हैं। उन्होंने सोचा ये अणुव्रत भगवान् महावीर स्वामी ने दिये हैं तो लेना तो पड़ेंगे, नहीं तो फिर जैन लिखना बंद करना पड़ेगा। इसलिये ले लिये, पर उसमें अपनी चतुराई का प्रयोग किया। इसमें थोड़ा-सा परिवर्तन कर लिया। जहाँ अहिंसाणुव्रत था वहाँ का 'अ' निकाल लिया। क्या कर लिया? हिंसाणुव्रत । ठीक है, अब काम चल जायेगा और हिंसा के काम करने लगे, और इस 'अ' का क्या करें? इसे सत्य के आगे जोड़ दें। हमने कुछ नहीं किया, उसी का उसी को दे दिया। सत्य के आगे 'अ' जोड़ दिया तो वह बन गया असत्याणुव्रत, सो असत्य बोलना शुरू कर दिया। उसके बाद आया अचौर्याणुव्रत । उससे भी 'अ' निकाला तो वह बन गया चौर्याणुव्रत, छोटी-छोटी चोरी करने लगे। बड़ी-बड़ी नहीं करेंगे, बेइमानी करने लग गये। अब इस 'अ' को कहाँ ले जायें? सो इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत में जोड़ दिया और वह बन गया अब्रह्मचर्याणुव्रत । वहीं का वहीं फिट कर दिया और विषयभोगों को भोगने में लीन हो गये। इसी प्रकार अपरिग्रह के 'अ' को निकालकर कर लिया परिग्रह, सो दिन-रात परिग्रह जोड़ने में लगे हैं। न घर के लिये समय है और न ही धर्म के लिये समय है। इन अणुव्रतों की हमने दुर्दशा कर दी है। एक का 'अ' निकालकर दूसरे में जोड़ता गया और अपनी चतुराई में भूल रहा है, अपनी चतुराई में भटक रहा है। अपनी चतुराई को बहुत बड़ी चतुराई समझ रहा है। पर ध्यान रखना, यह चतुराई नहीं है, ये बहुत बड़ी मूर्खता है, यह महा अज्ञानता है। इसका फल जब हमारे उदय में आयेगा तो रोना पड़ेगा। सीता के जीव प्रतीन्द्र ने नरक में जाकर जब रावण और लक्ष्मण के जीव को संबोधा और उनकी तरफ देखा तो दोनों दुःख के आँसू रो रहे थे। आप स्वयं विचार कर देखो कि हम कितना इन व्रतों का पालन कर रहे हैं। हम भगवान् को तो मानते हैं, पर उनकी बात नहीं मानते। ___ जब जीवों को स्व-पर की अर्थात् आत्मा 'अपना है और आत्मा से भिन्न जो भी पदार्थ हैं वे अपने नहीं हैं', ऐसी श्रद्धा होती है, तब उसका जीवन सुधर जाता है। अगर हमको भी अपना जीवन सुधारना है तो हमें जिनवाणी की बात 0 150_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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