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________________ करता है। और कोई जीव स्वर्ग में सम्यग्दृष्टि हो, वह बाह्य में तो अनेक देवियों के साथ क्रीड़ा कर रहा हो, पर अन्तरंग में सदा उनसे हटना अर्थात् दूर ही रहना चाहता है, उसमें वह आनन्द नहीं मानता। ज्ञान-वैराग्य की शक्ति से उसके कर्म घटते ही रहते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि यद्यपि संयम धारण नहीं कर पा रहा, पर उसके अन्तरंग में संयम धारण करने की भावना सदा रहती है। सम्यग्दृष्टि जीवों की दशा अचिंत्य अटपटी होती है। सम्यग्दर्शन संसार के दुःखरूपी अंधकार को नाश करने के लिये सूर्य के समान है। इस बहिरात्मा जीव ने अनादिकाल से मिथ्यात्व के वश होकर अपने स्वरूप की और परद्रव्यों के स्वरूप की पहचान नहीं की, इसीलिए आज तक संसार में परिभ्रमण कर रहा है। अतः अब तो अपने स्वरूप को पहचानकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करो। अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि जानता है कि मैं एक ज्ञायकभाव, अविनाशी, अखण्ड, देहादि समस्त पर द्रव्यों से भिन्न चैतन्यस्वरूपी आत्मा हूँ। देह, जाति, कुल, रूप, नाम इत्यादि मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं। पंडित दौलतराम जी ने लिखा है ___ बहिरातमता हेय जान तजि, अन्तर आतम हूजै। परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै।। बहिरात्मपना मिथ्यात्वयुक्त होने से हेय अर्थात् छोड़ने योग्य है, इसलिये आत्महितैषी प्राणियों को उसे छोड़कर, अन्तरात्मा बनकर, सदा परमात्मा का ध्यान करना चाहिये, क्योंकि उससे नित्य आनन्द (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। ___ बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीनों का स्वरूप अच्छी तरह जानने से अन्तर में हेय-उपादेय का विवेक जाग्रत हो जाता है। इन तीन भेदों को जाननेवाला जीव बहिरात्मपना छोड़कर, अन्तरात्मा होकर, परमात्मा को ध्याता है। चाहे धर्मात्मा हो या अधर्मात्मा, जब तक यह जीव बहिरात्मा रहता है, पर से भिन्न निज आत्मा को नहीं पहचानता, तब तक संसार में ही भ्रमण करता हुआ दुःख उठाता रहता है। एक समय की बात है कि नारद जी घूमते हुये स्वर्ग में पहुँच गये। वहाँ पर 0 1330
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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