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________________ अपने चैतन्य स्वरूप को पहचानना अभी बाकी है। मैं कौन हूँ, यह खोज करना भी आवश्यक है। जिसने अपने आपका अनुभव कर लिया, वह पर के प्रति निर्मोही बनता चला जायेगा और एक दिन भगवान् महावीर स्वामी के समान मुक्ति को प्राप्त कर लेगा। आत्मा अपने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव को भूलकर अज्ञानतावश पर-पदार्थों में राग-द्वेष करता है और व्यर्थ में संसार की 84लाख योनियों में भटकता हुआ दुःख उठाता है। देह से भिन्न चेतनारूप अपना अस्तित्व है, उसे न देखकर 'देह ही मैं हूँ', ऐसा मानकर जो वर्तता है, वह बहिरात्मा है। आप कौन और पर कौन? इसका भी जिसे विवेक नहीं, वह अज्ञानी बहिरात्मा है। वह आत्मा के सच्चे सुख को नहीं पहचानता और इन्द्रियों की इच्छाओं के वश में पड़ा हुआ रात-दिन आर्तध्यान करके पशु आदि खोटी योनियों में पहुँच जाता है। उसका वर्तमान जीवन भी द:खी व भविष्य का जीवन भी द:खी होता है, इसलिये यहाँ कहा जा रहा है कि बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मपने को ग्रहण करो। क्योंकि अन्तरात्मा आत्मा का सच्चा स्वरूप जानता है। वह आत्मा को आत्मारूप, शरीर व राग-द्वेषादि भावों से भिन्न, शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा जानता है और उसी में सच्चे सुख व शान्ति को पहचानता है। 'समयसार' ग्रंथ में कहा है कि ज्ञानी अन्तरात्मा अपनी ज्ञानचेतना के अतिरिक्त अन्य किसी भाव को किंचित् भी अपना नहीं मानते। सदैव अपने को ज्ञानचेतना रूप ही देखते हैं, अनुभव करते हैं। जीव स्वयं भेदज्ञान करके जब अन्तरात्मा हो, तभी वह ऐसे अन्तरात्मा की पहचान कर सकता है। आत्मा को जानने वाले अन्तरात्मा की रीति संसारी प्राणियों को अटपटी लगती है। पं. दौलतराम जी ने एक भजन में लिखा है-"चिन्मूरत दृगधारी की, मोहि रीति लगत है अटापटी। बाहर नारकीकृत दुःख भोगै, अन्तर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग, पै तिस परनति तैं नित हटाहटी।।" कोई जीव नरक में सम्यग्दृष्टि हो, उसे बाहर में तो नारकियों के द्वारा घोर दुःख दिया जाता है, पर उसी समय वह अन्तर में आत्मा के आनन्द का पान 0 132 m
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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