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________________ का ज्ञान हो जाता है तो शरीरादि भी पररूप दिखाई देंगे, तब शरीर से संबंधित अन्य पदार्थ- स्त्री -पुत्रादि अथवा धन-सम्पत्ति आदि तो अपने आप ही पर दिखाई पड़ेंगे। अतः उनके संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद भी नहीं होगा । इस प्रकार राग- - द्वेष का अभाव ही वास्तविक सुख है । राग-द्वेष का अभाव करने के लिये निज चैतन्य स्वरूपी आत्मा को पहचानना जरूरी है। परद्रव्यों से भिन्न आत्मा का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन कर्णधार है। जैसे बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि नहीं हो सकती, वैसे ही ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होती। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन होने पर यह जीव अन्तरात्मा कहलाता है । अन्तरात्मा का सुख-दुःख, भला-बुरा 'पर' से नहीं, अपितु अपने से ही है। चेतना के बाहर उसका अपना कुछ नहीं है। उसके शरीर है, परन्तु उनको कर्मजनित, विकारी भाव जानकर उनके नाश का उपाय करता है। पहले जब बहिरात्मा था तब समझता था कि इनके होने में मेरा कोई दोष नहीं है, ये तो कर्म के फल हैं, अथवा किसी दूसरे के कराये हैं । परन्तु अब समझता है कि ये मेरे पुरुषार्थ की कमी से हो रहे हैं और पुरुषार्थ बढ़ाकर मैं इनका नाश कर सकता हूँ। बाह्य सामग्री का संयोग-वियोग पुण्य-पाप के उदय के अनुसार हो रहा है, उसमें मैं जितना जुहूँगा, उतना ही राग होगा। ये संयोगादि मेरे सुख-दुःख के कारण नहीं हैं, बल्कि मेरा उनमें जुड़ना ही मेरे सुख - दुःख का कारण है । वह उनके नाश के लिये बार-बार अपने स्वभाव का अवलम्बन लेता है, स्वयं को चैतन्यरूप अनुभव करने की चेष्टा करता है । जितना स्वयं को चैतन्यरूप देखता है, उतना शरीरादि के प्रति राग कम होता जाता है । फलतः कषाय के साधनों से हटता है । तीव्र कषाय और उसके बाह्य आधारों को छोड़ते हुये, मंद कषाय में रहकर उसको भी मिटाने की चेष्टा करता है। वीतरागी सर्वज्ञ देव, उनके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र और उसी मार्ग पर चल रहे गुरु को माध्यम बनाकर निज स्वभाव की पुष्टि की भावना रखकर प्रतिदिन देवदर्शनादि करता है । उसे सम्पूर्ण मोक्षमार्ग 1202
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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