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________________ जीव तत्व RKE सात तत्त्वों में ‘जीव तत्त्व' सबसे प्रधान तत्त्व है। चेतना इसका मुख्य लक्षण है। समस्त सुख-दुःख की प्रतीति इस चेतना से ही होती है। इसी चेतना के आधार पर समस्त जड़द्रव्यों से इसकी अलग पहचान होती है। इसीलिये चेतना को इसका लक्षण कहा गया है। 'चेतना लक्षणो जीवः ।' जीव की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि-जिनमें द्रव्यप्राण या भावप्राण हैं, उसे जीवतत्त्व कहते हैं। जिसमें एक भी प्राण नहीं होता, वह अजीव कहलाता है। ज्ञान और दर्शन या जानने और देखने की शक्ति ये दो भावप्राण हैं तथा 5 इन्द्रियाँ, 3 बल (मनोबल, वचनबल, कायबल) आयु और स्वासोच्छवास ये 10 द्रव्यप्राण हैं। प्राणों के आधार पर जीने के कारण जीव को 'प्राणी' भी कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द महराज ने 'भावप्राभृत' में कहा है कत्ताभोइ अमुत्तो सरीरमित्तो आणाइणिहणो य। दंसणणाणुवओगो णिद्धिट्ठो जिणवरिंदेहिं।। श्री जिनेन्द्रदेव ने जीव को कर्ता, भोक्ता, अमूर्त, शरीर-प्रमाण, नित्य तथा दर्शन और ज्ञान रूप उपयोग का धारक कहा है। जीव के प्रकारों का वर्णन करते हुये पंडित श्री दौतलराम जी ने लिखा है बहिरातम अन्तर आतम, परमातम जीव त्रिधा है। देह जीव को एक गिनें, बहिरातम तत्त्व मुधा है।। उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर आतम ज्ञानी। द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निज ध्यानी।। 4।। (छहढाला) जीव तीन प्रकार के होते हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो शरीर और आत्मा को एक मानते हैं, वे तत्त्वों को नहीं जानने वाले अज्ञानी बहिरात्मा 0 115_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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