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________________ 然然然然然然然然然然然然然然然是长路 परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य, बालनायक, वात्सल्य रत्नाकर, चतुर्विध संघाधिपति चारित्र चक्रवर्ती, आगम उद्धारक, ज्ञानयोगी, उपसर्गजयी, स्याद्वाद केशरी । श्री आचार्य कुन्युसागरजी महाराज के श्री चरणो मे सविनय समर्पित * अभिनन्दन-पत्र * गणधराचार्य --हे स्वामिन । आपने गण अर्थात् पाँच द्रव्य इन्द्रियो का धारण केवल भव्य जनो के हित और मोक्ष-मार्ग प्रकाशन मे ही किया है। आपकी अन्तर्मुखी वृत्ति एव सतत् प्रात्मध्यान मे लीनता देखकर हो भगवान महावीर के तीर्थ की प्रभावना करने वाले पूज्य आचार्य श्री महावीर कीति ने ६ जनवरी, ७२ गुरुवार को प्रापको गणधर के पद पर सुशोभित किया तथा १६ नवम्बर ८० को निमित्तज्ञान शिरोमणि श्री विमलसागरजी महाराज ने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर सम्यक दर्शन के प्रभावना अग की प्रतिष्ठा की। बालनायक वात्सल्य रत्नाकर -हे सरल साधु निश्छल हृदय बालकवत् भावुक भोलेचलते-फिरते जोवत मोक्ष स्वरूप आपके स्नेह भाव और अमृतवाणी से भारतवर्ष की जैन जैनेत्तर सभी जनता ने शुक्रदेव जैसा बालयोगी और वात्सल्य रत्नाकर कहकर भूरि-भूरि प्रशसा की। चतुर्विध संघाधिपति चारित्र्य चक्रवर्ती -आपने साधु, मुनि, उपाध्याय, आचार्य सभी के मूल गुणो और आवारादि गुणो से शरीर को कुन्दन बनाया है। मुनि-ऐल्लक, क्षुल्लक, आर्यिका रूप संघ के कर्णधार एव उपाध्याय, श्रावक, श्राविकाओ, सतो, तपस्वियो के मार्गदर्शक वाईस परिषहो को जय करते हुए, बाईस मुनिराजो को दीक्षा प्रदान करने वाले आत्मलिन आप वदनीय है। श्रागम उद्धारका-जिस प्रकार चक्रवर्ती १४ रत्नो से वसुधा विजय कर वीर पताका फहराता है, उसी प्रकार आपने जयपुर-जैनपुरी सस्थान के श्रावक रत्न शाति कुमार गगवाल द्वारा श्री दिगम्बर जैन कुन्थु विजय ग्रथमाला से चौदह ग्रन्थ रत्न प्रकाशित करवा कर अपनी प्रतिभा, साधना, श्रम, अध्यवसाय का परिचय ही नही दिया, अपितु राष्ट्र भाषा मे मत्र, तत्र, यत्र श्रमण सिद्धात, सम्मेद शिखर माहात्म्म्, शीतल, शातिपूजा व्रत विधान, रात्रि भोजन त्याग, धर्म, ज्ञान, । विज्ञानादि प्रचारित कर जिनवाणी मथन कर आर्ष परपरा को जीवित रखने का भागीरथ प्रयत्न किया। तीर्थङ्कर प्रकृति के बधन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है। ज्ञानयोगी-हे प्रभु वोर प्रभू मेवाड, उदयपुर के बाठेडा ग्राम मे प रेवाचद्रजी सोहनीदेवी ने जिन पॉच सतानो को जन्म दिया उनमे आपने प्राचार्य परमेष्ठी बनकर उनके दिव्य पवित्र धर्मशाल सस्कारो को मूर्त ही नही किया, ज्ञान सूर्य और तप द्वारा सहस्र गुना विकसित किया । SEARNAYANAMAHARAMINAMANANANMMS
SR No.009991
Book TitleLaghu Vidhyanuvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj, Vijaymati Aryika
PublisherShantikumar Gangwal
Publication Year
Total Pages774
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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