SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१-१) सब्बपालिफुल्लमिव पारिच्छत्तकं, तारामरीचिविकसितमिव, गगनतलं सिरिया अवहसन्तमिव, ब्यामप्पभापरिक्खेपविलासिनी चस्स द्वत्तिंसवरलक्खणमाला गन्थेत्वा ठपितद्वत्तिंसचन्दमालाय द्वत्तिंससूरियमालाय पटिपाटिया ठपितद्वत्तिंसचक्कवत्तिद्वत्तिंससक्कदेवराजद्वत्तिंसमहाब्रह्मानं सिरिं सिरिया अभिभवन्तिमिव । तञ्च पन भगवन्तं परिवारेत्वा ठिता भिक्खू सब्बेव अप्पिच्छा सन्तुट्ठा पविवित्ता असंसट्ठा चोदका पापगरहिनो वत्तारो वचनक्खमा सीलसम्पन्ना समाधिपाविमुत्तिविमुत्तिञाणदस्सनसम्पन्ना । तेसं मज्झे भगवा रत्तकम्बलपाकारपरिक्खित्तो विय कञ्चनथम्भो, रत्तपदुमसण्डमज्झगता विय सुवण्णनावा, पवाळवेदिकापरिक्खित्तो विय अग्गिक्खन्धो, तारागणपरिवारितो विय पुण्णचन्दो मिगपक्खीनम्पि चक्खूनि पीणयति, पगेव देवमनुस्सानं । तस्मिञ्च पन दिवसे येभुय्येन असीतिमहाथेरा मेघवण्णं पंसुकूलं एकंसं करित्वा कत्तरदण्डं आदाय सुवम्मवम्मिता विय गन्धहत्थिनो विगतदोसा वन्तदोसा भिन्नकिलेसा विजटितजटा छिन्नबन्धना भगवन्तं परिवारयिंसु । सो सयं वीतरागो वीतरागेहि, सयं वीतदोसो वीतदोसेहि, सयं वीतमोहो वीतमोहेहि, सयं वीततण्हो वीततण्हेहि, सयं निक्किलेसो निक्किलेसेहि, सयं बुद्धो अनुबुद्धेहि परिवारितो; पत्तपरिवारितं विय केसरं, केसरपरिवारिता विय कण्णिका, अट्ठनागसहस्सपरिवारितो विय छद्दन्तो नागराजा, नवुतिहंससहस्सपरिवारितो विय धतरट्ठो हंसराजा, सेनगपरिवारितो विय चक्कवत्तिराजा, देवगणपरिवारितो विय सक्को देवराजा, ब्रह्मगणपरिवारितो विय हारितो महाब्रह्मा, अपरिमितकालसञ्चितपुञ्जबलनिब्बत्ताय अचिन्तेय्याय अनोपमाय बुद्धलीलाय चन्दो विय गगनतलं तं मग्गं पटिपन्नो होति । अथेवं भगवन्तं अनोपमाय बुद्धलीलाय गच्छन्तं भिक्खू च ओक्खित्तचक्खू सन्तिन्द्रिये सन्तमानसे उपरिनभे ठितं पुण्णचन्दं विय भगवन्तंयेव नमस्समाने दिस्वाव परिब्बाजको अत्तनो परिसं अवलोकेसि | सा होति काजदण्डके ओलम्बेत्वा गहितोलुग्गविलुग्गपिट्ठकतिदण्डमोरपिञ्छमत्तिकापत्तपसिब्बककुण्डिकादिअनेकपरिक्खारभारभरिता ।। "असुकस्स हत्था सोभणा, असुकस्स पादाति एवमादिनिरत्थकवचना मुखरा विकिण्णवाचा अदस्सनीया अपासादिका। तस्स तं दिस्वा विप्पटिसारो उदपादि । इदानि तेन भगवतो वण्णो वत्तब्बो भवेय्य । यस्मा पनेस लाभसक्कारहानिया चेव पक्खहानिया च निच्चम्पि भगवन्तं उसूयति । अञतित्थियानहि याव बुद्धो लोके नुप्पज्जति, तावदेव लाभसक्कारा निब्बत्तन्ति, बुद्धप्पादतो पन पट्ठाय परिहीनलाभसक्कारा 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009979
Book TitleDighnikayo Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy