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________________ अभी-अभी प्राण छोड़े हैं और तभी से निग्रंथों में फूट पड़ गयी है । वे एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं कि तुम धर्म-विनय को नहीं जानते, तुम मिथ्यारूढ़ हो, तुम्हारा कथन अर्थवान नहीं है, तुम पहले कहने वाली बात को पीछे कहते हो और पीछे कहने वाली बात को पहले, तुम्हारा वाद उल्टा है, इत्यादि-इत्यादि । इसका कारण यह है कि नाटपुत्त द्वारा प्रतिपादित धर्म दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अ-नैर्याणिक, अनुपशम-संवर्तनिक, अ-सम्यक-संबुद्ध-प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित और आश्रय-रहित था । परंतु हमारे भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म स्वाख्यात (अच्छी प्रकार बतलाया गया), सु-प्रवेदित (ठीक प्रकार से प्रगट किया गया), नैर्याणिक (दुःख से पार ले जाने वाला), उपशम-संवर्तनिक (शांति-दायक), सम्यक-संबुद्ध-प्रवेदित (सम्यक संबुद्ध द्वारा प्रगट किया गया) है । इसे सभी को समान रूप से संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, जिससे यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो, बहुत लोगों के हित-सुख के लिए हो, लोक पर अनुकंपा करने वाला हो, देवताओं तथा मनुष्यों के भले और हित-सुख के लिए हो । तत्पश्चात आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्मों को एक से लेकर दस तक की संख्या में वर्गीकृत करते हुए भिक्षुओं को उनका संगायन करते रहने और उनमें विवाद न करने के लिए कहा जिससे ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो। आयुष्मान सारिपुत्त ने बार-बार इस बात को दोहराया है कि इन धर्मों का भली प्रकार आख्यान इनके जानन-हार, देखन-हार, अरहंत-अवस्था प्राप्त, सम्यक संबुद्ध ने किया है। ११. दसुत्तरसुत्त एक समय भगवान एक बड़े भिक्षु-संघ के साथ चम्पा में गग्गरा पुष्करिणी के तीर पर विहार कर रहे थे | वहां पर आयुष्मान सारिपुत्त ने उन भिक्षुओं को आमंत्रित कर उन्हें सब ग्रंथियों का विमोचन करने वाले ‘दसुत्तर' धर्म का बखान किया जिससे कि वे अपने-अपने दुःखों का अंत कर निर्वाण-लाभ कर सकें। __ आयुष्मान सारिपुत्त ने प्रज्ञप्त किया है कि 'दसुत्तर' धर्मों में कौन-कौन से धर्म उपकारक, भावनीय, परिज्ञेय, प्रहातव्य, हानभागीय, विशेषभागीय, दुष्प्रतिवेध्य, उत्पादनीय, अभिज्ञेय अथवा साक्षात्कार किये जाने के योग्य हैं। ये सभी धर्म वास्तविकता पर आधारित, तथ्यपूर्ण, यथार्थ और भगवान तथागत द्वारा सम्यक प्रकार से अपनी बोधि द्वारा जाने गये हैं। 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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