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________________ [२४] आर्य-सत्यों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक, यथाभूत, यह जानना होता है कि यह दुःख है, यह दुःख का समुदय है, यह दुःख का निरोध है, यह दुःख-निरोध का उपाय है। तत्पश्चात भगवान ने स्पष्ट किया कि दुःख, दुःख का समुदय, दुःख का निरोध और दुःख-निरोध का उपाय – इनसे क्या अभिप्राय है । संक्षेप में पांचों उपादान स्कंध ही 'दुःख' हैं; बार-बार राग जगाने वाली तृष्णा 'दुःख का समुदय' है; इस तृष्णा का सर्वथा निरोध 'दुःख का निरोध' है; और आर्य अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि) 'दुःख-निरोध का उपाय' है। अंत में भगवान ने प्रज्ञप्त किया कि जो कोई मेरे बतलाये अनुसार इन चार स्मृति-प्रस्थानों की सात वर्ष भावना करे उसे इन दो फलों में से एक की आशा रखनी चाहिए- इसी जन्म में अर्हत्व का साक्षात्कार अथवा उपाधि शेष होने पर अनागामि-भाव । भगवान ने आगे प्रज्ञप्त किया कि इससे कहीं कम अवधि में भी इस फल की आशा की जा सकती है। १०. पायासिराजञसुत्त एक समय आयुष्मान कुमारकस्सप एक बड़े भिक्षु-संघ के साथ कोसल देश में सेतब्या नगर के उत्तर की ओर सिंसपा-वन में विहार करते थे। उस समय पायासि राजन्य कोसल-नरेश प्रसेनदि द्वारा प्रदत्त सेतब्या का स्वामी हो कर रहता था। उन दिनों कुमारकस्सप की ऐसी कीर्ति फैल रही थी कि वे पंडित, मेधावी, बहुश्रुत, मन की बात जानने वाले, अच्छी प्रतिभा वाले, अनुभवी तथा अरहंत हैं। यह मानते हुए कि अरहंतों का दर्शन करना अच्छा होता है, सेतब्या के बहुत से लोग सिंसपा-वन जाने लगे। पायासि राजन्य भी उनके साथ हो लिया। वहां पहुँच कर पायासि राजन्य ने कुमारकस्सप से कहा कि मैं ऐसे सिद्धांत को मानने वाला हूं कि न तो कोई परलोक होता है, न जीव मर कर पैदा होते हैं और न ही अच्छे और बुरे कर्मों का कोई फल होता है । इसके लिए उसने अनेक तर्क दिये- १. मरे हुओं को किसी ने लौट कर आते नहीं देखा, २. धर्मात्मा आस्तिकों को भी मरने की इच्छा नहीं होती, ३. जीव के निकल जाने पर मृत शरीर का न तो वज़न ही कम होता है और न ही जीव को कहीं से निकलते जाते देखा जाता है। 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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