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________________ [२३] सामिष, निरामिष - उसे प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानना होता है और पूर्ववत भीतर, बाहर, सर्वत्र उदय-व्यय की अनुभूति के साथ विहार करना होता है जिससे जागरूकता स्थिर हो कर केवल इसी बात का ज्ञान अथवा दर्शन प्राप्त हो 'यह वेदना है !' - 'चित्तानुपश्यना' करते समय जैसी भी चित्त की स्थिति हो - रागयुक्त, रागविहीन; द्वेषयुक्त, द्वेषविहीन, मोहयुक्त, मोहविहीन; इत्यादि उसे प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानना होता है और पूर्ववत भीतर, बाहर, सर्वत्र उदय-व्यय की अनुभूति के साथ विहार करना होता है जिससे जागरूकता स्थिर हो कर केवल इसी बात का ज्ञान, अथवा दर्शन, प्राप्त हो- 'यह चित्त है !' 'धर्मानुपश्यना' करते समय भी चित्त में जागने वाले धर्मों की जैसी जैसी स्थिति उन्हें प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानना होता है और पूर्ववत भीतर, बाहर, सर्वत्र उदय-व्यय की अनुभूति के साथ विहार करना होता है जिससे जागरूकता स्थिर होकर केवल इसी बात का ज्ञान, अथवा दर्शन, प्राप्त हो - 'ये धर्म हैं !' नीवरणों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि इस समय नीवरण है, अथवा नहीं है, अथवा उत्पन्न हो रहा है, अथवा इसका प्रहाण हो रहा है अथवा प्रहाण हुए-हुए का अब पुन: उद्भव नहीं होता है। (नीवरण हैं : १. कामच्छंद कामुकता, २. व्यापाद = द्रोह, ३. स्त्यानमृद्ध = तन-मन का आलस, ४. औद्धत्य -कौकृत्य = उद्वेग-खेद, ५. विचिकित्सा संदेह 1) = उपादान स्कंधों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि इस समय स्कंध उदय हो रहा है अथवा अस्त हो रहा है । ( उपादान स्कंध हैं : १. रूप, २. वेदना, ३ . संज्ञा, ४. संस्कार, ५. विज्ञान ।) आयतनों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि यह भीतर का आयतन है, यह बाहर का आयतन है, यह दोनों के संसर्ग से होने वाला संयोजन है, यह अविद्यमान संयोजन की उत्पत्ति है, यह उत्पन्न हुए संयोजन का प्रहाण है और यह प्रहाण हुए हुए संयोजन का अब अनुद्भव है| (आयतन हैं : १. बाह्य-चक्षु, २. श्रोत्र, ३. घ्राण = नासिका; ४. जिव्हा, ५. काय = त्वक । ६. आभ्यंतर - मन तथा उनके विषय ।) Jain Education International = बोध्यंगों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि इस समय बोध्यंग है, अथवा नहीं है, अथवा उत्पन्न हो रहा है, अथवा भावित हो कर परिपूर्ण हो रहा है । ( बोध्यंग हैं: १. स्मृति, २. धर्मविचय, ३. वीर्य, ४. प्रीति, ५. प्रश्रब्धि, ६. समाधि, ७. उपेक्षा ।) 33 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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