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________________ [२१] आंखों से देख लिया है। उन्होंने गोपक देवपुत्र के कथन का हवाला देते हुए बतलाया कि कैसे स्मृति खोये हुए व्यक्ति स्मृति-लाभ कर देवों से भी आगे निकल जाते हैं। तदनंतर सक्क ने भगवान से अनुमति प्राप्त कर उनसे पूछा कि ऐसा कौन सा बंधन है जिसके कारण सभी प्राणी वैर, दंड, शत्रुता और हिंसाभाव को छोड़ कर वैर-रहित होकर रहना चाहते हुए भी सदा दंड-सहित, शत्रुता और हिंसाभाव से युक्त हो कर ही रहते हैं ? भगवान ने बतलाया ये बंधन हैं- ईर्ष्या और मात्सर्य । फिर ईर्ष्या और मात्सर्य के निदान, समुदय के बारे में पूछे जाने पर भगवान ने कहा ये प्रिय और अ-प्रिय के कारण होते हैं और इनके नहीं होने से नहीं होते । प्रिय और अ-प्रिय छंद (चाह) के कारण होते हैं । छंद वितर्क के कारण होता है। वितर्क प्रपंचसंज्ञासंख्या के कारण होता है। फिर भगवान ने सौमनस्य, दौर्मनस्य और उपेक्षा-भाव को लेकर प्रपंचसंज्ञासंख्या के निरोध का मार्ग प्रज्ञप्त किया। तत्पश्चात सक्क के प्रश्नों के उत्तर में भगवान ने प्रातिमोक्ष-संवर, इन्द्रिय-संवर के बारे में बतलाया और यह भी स्पष्ट किया कि सभी श्रमण और ब्राह्मण एक ही सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले, एक ही शील को मानने वाले, एक ही अभिप्राय वाले क्यों नहीं होते हैं ? भगवान ने कहा इसका कारण यह है कि संसार के सभी लोग भिन्न-भिन्न धातु के बने होते हैं, तो जो जीव जिस धातु का बना होता है उसी को हठपूर्वक, दृढ़तापूर्वक ग्रहण कर लेता है कि यही सच है, बाकी सब झूठ । इसी कारण सभी श्रमण, ब्राह्मण एकरूप नहीं होते। सक्क ने भगवान के प्रति आभार व्यक्त किया कि आपने बहुत दिनों से चली आ रही मेरी शंका और दुविधा को दूर कर दिया है । भगवान ने उससे पूछा कि क्या इससे पहले भी तुम्हें कभी ऐसा संतोष सौमनस्य प्राप्त हआ था? सक्क ने कहा देवासर संग्राम के समय देवताओं की जीत होने पर मेरे मन में जो संतोष, सौमनस्य हुआ था वह लड़ाई-झगड़े के संबंध में था- निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, ज्ञान, संबोधि, निर्वाण के लिए नहीं था। अब भगवान का धर्मोपदेश सुन मुझे जो संतोष, सौमनस्य प्राप्त हुआ है, वह लड़ाई-झगड़े के संबंध में नहीं, बल्कि पूर्णतया निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, ज्ञान, संबोधि और निर्वाण के लिए है। तब देवेंद्र सक्क ने हाथ से पृथ्वी को छू कर तीन बार प्रीति-वाक्य कहे -- 'नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स !' 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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