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________________ [१४] बहुत समय बाद सुभद्दादेवी नाम की राजमहिषी अन्य स्त्रियों के साथ राजा को देखने के लिए गयी । उसे दरवाजा पकड़े खड़ा हुआ देख राजा ने उसे भीतर आने से रोक दिया और स्वयं तालवन में पलंग बिछवा कर दाहिनी करवट हो, पैर के ऊपर पैर रख, स्मृति और संप्रज्ञान के साथ सिंहशय्या लगा ली। इस पर महिषी को आशंका हुई कि कहीं राजा मरणासन्न तो नहीं है ? मन में यह विचार आते ही उसने राजा को उसके धन-वैभव की याद दिलाते हुए कहा कि आप इनसे प्रसन्न हो अपने जीवित रहने की कामना करें। इस पर राजा ने उसे कहा, 'तुमने बहुत दिनों तक मेरे साथ इष्ट एवं प्रिय आचरण किया है; अतः इस अंतिम समय में अनिष्ट एवं अप्रिय आचरण करना उचित नहीं है।' इस समय तुम्हें यह कहना चाहिये- 'देव ! सभी प्रिय वस्तुओं से बिछोह होता है। आप किसी कामना के साथ प्राण न छोड़ें । कामना-युक्त मृत्यु दुःखपूर्ण होती है, गर्दा होती है। आपका जो इतना वैभव है उसमें लिप्त न हों । जीवित रहने की कामना मन में न करें ।' __ महिषी ने ऐसा ही किया। इसके कुछ ही देर बाद राजा की मृत्यु हो गयी। चारों ब्रह्मविहारों की भावना करता हुआ वह ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। अंत में भगवान ने कहा यह राजा महासुदस्सन मैं ही था । वह कुसावती नाम की राजधानी और वह सारा वैभव मेरा ही था । देखो, ये सभी संस्कार (कृत वस्तुएं) क्षीण हो गये, निरुद्ध हो गये, बदल गये । इसी प्रकार सभी संस्कार अ-नित्य हैं, अ-ध्रुव हैं, अ-विश्वसनीय हैं। इसीलिए सभी संस्कारों से निर्वेद प्राप्त करना, विरक्त हो जाना, विमुक्त हो जाना उचित है। भगवान ने यह भी बतलाया कि पहले छह बार इसी स्थान पर मेरी मृत्यु हो चुकी है। अब यहां सातवीं बार मेरा शरीरपात हो रहा है। मैं सारे लोकों में कोई अन्य स्थान नहीं देखता जहां तथागत को आठवी बार शरीर त्यागना पड़े। यह कह कर भगवान ने यह भी कहा - "सभी संस्कार अनित्य हैं; उत्पत्ति और क्षय स्वभाव वाले हैं; ये उत्पन्न हो-हो कर मिट जाते हैं; इनका शांत हो जाना ही 'सुख' है।" 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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