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________________ [१३] परिनिर्वाण लाभ करें तो अच्छा हो । वहां बहुत से लोग तथागत के भक्त हैं जो उनके शरीर की पूजा करेंगे। इस पर भगवान ने कहा कि पूर्वकाल में महासुदस्सन नाम का चारों दिशाओं पर विजय प्राप्त करने वाला एक मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा था । यही कुसिनारा उसकी कुसावती नाम की राजधानी थी जो अत्यंत विस्तीर्ण, समृद्ध तथा वैभव संपन्न थी । उस राजा के पास सात रत्न थे - १. चक्र-रत्न, २. हस्ति- रत्न, ३. अश्व - रत्न, ४ . मणि-रत्न, ५. स्त्री- रत्न, ६. गृहपति - रत्न, तथा ७. परिणायक - रत्न । उसे चार ऋद्धियां भी प्राप्त थीं - १. परम- सौंदर्य, २. दीर्घ-आयु, ३. नीरोगता, और ४. ब्राह्मणों तथा गृहस्थों का वात्सल्य | एक बार वह राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ उद्यानभूमि में गया । वहां पर उसने बहुत सी पुष्करिणियां खुदवाईं और उनके तीर पर विविध प्रकार के दान स्थापित किये। इधर ब्राह्मण और गृहस्थ भी राजा को भेंट करने के लिए बहुत सा धन लेकर चले आये परंतु राजा ने उसे स्वीकार नहीं किया, उल्टा उन्हें ही अपने यहां से और धन ले जाने के लिए कहा। उन लोगों ने अपने साथ लाए हुए धन को अपने घरों में वापिस ले जाना उचित नहीं समझा और राजा के लिए एक प्रासाद (महल) तैयार करवाने का निर्णय लिया । राजा इससे सहमत हुआ । देवपुत्र विस्सकम्म ने 'धम्म' नामक प्रासाद तैयार कर दिया। राजा ने उसके सामने धर्म-पुष्करिणी बनवा दी । इन दोनों के तैयार हो जाने पर राजा ने उस समय के अच्छे-अच्छे श्रमणों तथा ब्राह्मणों को संतुष्ट कर ' धम्म ' - प्रासाद में प्रवेश किया । तब राजा को यह भान हुआ कि 'यह मेरे दान, दम, संयम इन तीन कर्मों का फल है। जिससे मैं इस समय इतना समृद्धिशाली एवं महानुभाव हुआ हूं।' उसके मुख से प्रीति-वाक्य निकला - ' ठहर काम - वितर्क ! ठहर व्यापाद-वितर्क ! ठहर विहिंसा - वितर्क ! बस काम-वितर्क !! बस व्यापाद-वितर्क !! बस विहिंसा -वितर्क ! !' तत्पश्चात वह कूटागार में प्रवेश कर उत्तरोत्तर प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर इनमें विहार करने लगा और इसके बाद क्रमशः मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा- युक्त श्रेष्ठ चित्त से एक-एक करके सभी दिशाओं को व्याप्त कर विहरने लगा । Jain Education International 23 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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