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________________ [४०] धर्म को जान कर इसे किसी दूसरे को न बताये, क्योंकि कोई किसी दूसरे के लिए कर ही क्या सकता है ? भगवान ने उसकी इस पाप-दृष्टि को दूर करने के लिए उसे कहा कि यदि कोई व्यक्ति अपनी समूची आय का अकेला ही उपभोग करे, किसी को कुछ न दे, तो वह उसके आश्रितों के लिए हानिकारक होगा, अहित-कारक होगा, उनके मन में शत्रुता जगाने वाला होगा जिससे मिथ्या दृष्टि पैदा होगी। और मिथ्या-दृष्टि रखने वाले की दो ही गतियां होती हैं - नरक या नीच योनि में जन्म! __ ऐसी पाप-दृष्टि वाला व्यक्ति उन कुलपुत्रों के लिए भी हानि-कारक सिद्ध होगा जो भव से निवृत्त होने के लिए तथागत के बताये धर्म में आकर ऐसी विदग्धता हासिल कर लेते हैं जिससे सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी अथवा अरहंत हो जाते हैं अथवा दिव्यगर्भ का परिपाक करते हैं। वह हानिकारक होने से अहित-कारक, शत्रुता जगाने वाला और मिथ्या-दृष्टि पैदा करने वाला होगा जिसकी दो ही गतियां होती हैं - नरक या नीच योनि में जन्म ! तत्पश्चात भगवान ने उसे समझाया कि तीन प्रकार के गुरु सचमुच आक्षेप के योग्य होते हैं : (१) जो श्रमणभाव को प्राप्त किये बिना ही श्रावकों को धर्म सिखाते हैं और श्रावक उनकी बात सुनते नहीं हैं। (इन गुरुओं का यह कृत्य ऐसा लगता है मानों मुँह फेरे हुए का आलिंगन करना चाहते हों।) (२) जो श्रमणभाव को प्राप्त किए बिना ही श्रावकों को धर्म सिखाते हैं और श्रावक उनकी बात सुनते हैं। (इन गुरुओं का यह कृत्य ऐसा लगता है मानों अपने खेत की सफाई को छोड़ कर दूसरे के खेत की सफाई करना चाहते हों ।) (३) जो श्रमणभाव को प्राप्त कर श्रावकों को धर्म सिखाते हैं परंतु श्रावक उनकी बात को नहीं सुनते । (इन गुरुओं का यह कृत्य ऐसा लगता है मानों किसी पुराने बंधन को काट कर नया बंधन खड़ा करना चाहते हों।) संसार में ऐसे भी गुरु होते हैं जिन पर आक्षेप नहीं किया जा सकता । जब संसार में कोई तथागत उत्पन्न होता है और उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर कोई व्यक्ति शीलसंपन्न हो, समाधि का अभ्यास करता हुआ प्रथम से लेकर चतुर्थ ध्यान को क्रमशः प्राप्त कर इनमें विहार करते हुए इसमें विदग्धता हासिल कर लेता है, ऐसा गुरु आक्षेप के योग्य नहीं होता । ऐसे ही जब कोई व्यक्ति निर्मल किये हुए समाहित चित्त को (विपश्यना) ज्ञान के लिए अथवा आनवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है जबकि वह प्रज्ञापूर्वक जान लेता है - 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं' - ऐसा गुरु भी आक्षेप के योग्य नहीं होता। 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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