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________________ [३९] लेता है, परंतु मणिका नाम की विद्या द्वारा भी ऐसा किया जाना संभव है। इन दोनों के इन दोषों को देख कर मुझे इनके प्रदर्शन से संकोच होता है। 'अनुशासनी-प्रातिहार्य' में भिक्षु ऐसा अनुशासन करता है - ‘ऐसा विचारो, ऐसा मत विचारो; ऐसा मन में करो, ऐसा मन में मत करो; इसे छोड़ दो, इसे स्वीकार कर लो।' और फिर जब इस संसार में कोई तथागत उत्पन्न होता है और उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान हो कर कोई गृहपति शीलसंपन्न हो जाता है और तदुपरांत इंद्रियों को वश में कर, स्मृति और संप्रज्ञान का अभ्यासी हो, संतुष्ट हुआ, चित्त के नीवरणों को दूर कर प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहरता है तो यह भी 'अनुशासनी-प्रातिहार्य' है । और इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त होकर विहरना अथवा चित्त को (विपश्यना) ज्ञान से लेकर आस्रवक्षय-ज्ञान तक नवाते जाना 'अनुशासनी-प्रातिहार्य' ही हैं। आम्रवक्षय-ज्ञान की अंतिम अवस्था पर तो भिक्षु प्रज्ञापूर्वक यह जान लेता है कि 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं ।' एक बार एक भिक्षु के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि ये चार महाभूत – पृथ्वीधातु, जलधातु, तेजोधातु तथा वायुधातु - कहां जाकर बिल्कुल निरुद्ध हो जाते हैं । तब उस भिक्षु ने अपने समाहित चित्त से पहले देवलोक और फिर ब्रह्मलोक में जाकर इस प्रश्न का समाधान चाहा परंतु न तो कोई देव और न ही ब्रह्मा स्वयं इसका समाधान कर पाये। तब उस भिक्षु ने भगवान बुद्ध से यही प्रश्न किया । इस पर उन्होंने कहा कि यह प्रश्न ऐसे पूछना चाहिए - 'कहां पर जल, पृथ्वी, तेज तथा वायु स्थित नहीं रहते हैं ? कहां दीर्घ, ह्रस्व, अणु, स्थूल, शुभ, अशुभ, नाम और रूप बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं ?' उन्होंने इसका उत्तर इस प्रकार दिया - ‘अनिदर्शन (अर्थात, जहां उत्पत्ति, स्थिति और लय की बात नहीं है), अनंत और अत्यंत प्रभायुक्त निर्वाण जहां है, वहां जल, पृथ्वी, तेज और वायु स्थित नहीं रहते । वहां दीर्घ-ह्रस्व, अणु-स्थूल, शुभ-अशुभ, नाम और रूप बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं । विज्ञान के निरोध से वहां सभी का अवसान हो जाता है।' १२. लोहिच्चसुत्त एक समय भगवान कोसल देश में चारिका करते हुए सालवतिका पहुँचे । वहां पर लोहिच्च नाम का ब्राह्मण रहता था । उसके मन में यह पाप-दृष्टि पैदा हुई कि कोई श्रमण या ब्राह्मण कुशल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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