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________________ [३५] है, प्रश्नों के उत्तर से चित्त प्रसन्न करता है, लोग इसे सुनने योग्य मानते हैं, सुन कर प्रसन्न होते हैं, प्रसन्नता प्रकट करते हैं, सच्चाई का प्रतिपादन करने लगते हैं और इसके प्रतिपादन में लगे हुए उसे प्राप्त कर लेते हैं। कालांतर में अचेल कस्सप ने भगवान के पास प्रव्रज्या पायी, उपसंपदा पायी और साधनाभ्यास करते हुए अरहंतों में से एक हुआ ! ९. पोट्टपादसुत्त एक समय सावत्थी में भिक्षाटन के लिए जाते-जाते भगवान तिन्दुकाचीर के वाद-भवन पर चले गये । वहां पोट्टपाद नाम का परिव्राजक तीन सौ साधुओं को निरर्थक कथा-कहानियां सुना रहा था। भगवान को आते देख वे सब चुप हो गये। भगवान का स्वागत कर पोट्टपाद ने उनसे यह जानना चाहा कि अभिसंज्ञा-निरोध कैसे होता है। इस पर उन्होंने कहा कि पुरुष की संज्ञाएं स-कारण, स-प्रत्यय उत्पन्न भी होती हैं और निरुद्ध भी होती हैं । कोई-कोई संज्ञा शिक्षा से उत्पन्न होती है, कोई-कोई शिक्षा से निरुद्ध हो जाती है। तत्पश्चात भगवान ने 'शिक्षा' के बारे में समझाया कि जब कोई व्यक्ति तथागत द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान हो कर शीलों का पालन करता हुआ; इंद्रिय-संवर, स्मृति-संप्रज्ञान और संतोष का आश्रय लेता हुआ; अपने चित्त से नीवरणों को दूर कर, समाहित चित्त से, एक से एक ऊंचा ध्यान करता है तब इन ध्यानों के समय शिक्षा से उत्पन्न और निरुद्ध होने वाली संज्ञाओं की स्थिति इस प्रकार रहती है - ध्यान उत्पन्न होने वाली संज्ञा निरुद्ध होने वाली संज्ञा प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ विवेकज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा समाधिज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा उपेक्षासुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा अदुःखअसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा आकाश-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा विज्ञान-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा आकिञ्चन्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा काम-संज्ञा विवेकज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा समाधिज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा उपेक्षासुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा रूप-संज्ञा आकाश-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा विज्ञान-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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