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________________ [३४] अपनाना, बाहरी वेषभूषा, उठने-बैठने-सोने के तौर-तरीके, इत्यादि । यह सुन कर भगवान ने कहा कि इस प्रकार का तप करने वाला व्यक्ति शील-संपत्ति, चित्त-संपत्ति और प्रज्ञा-संपत्ति की भावना नहीं कर सकता और न ही इनका साक्षात्कार कर सकता है । वह श्रामण्य और ब्राह्मण्य से दूर रह जाता है। श्रमण अथवा ब्राह्मण तो वही कहलाता है जो वैर और द्रोह-रहित हो कर मैत्री-भावना करता है और चित्त-मलों का क्षय हो जाने से निर्मल चित्त की मुक्ति और प्रज्ञा द्वारा मुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करता है। तत्पश्चात अचेल कस्सप द्वारा शील-संपत्ति, चित्त-संपत्ति और प्रज्ञा-संपत्ति के बारे में जानकारी चाहे जाने पर भगवान ने कहा कि जब संसार में कोई तथागत उत्पन्न होता है और उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान हो कर कोई व्यक्ति हिंसा को छोड़ हिंसा से विरत रहता है, दंड और शस्त्र को छोड़ देता है, संकोच-शील, दयावान और सभी जीवों का हितानुकंपी हो विहार करता है, यह उसकी शील-संपत्ति होती है । बुरी आजीविका से विरत रहना भी शील-संपत्ति होती है। ऐसा शील-संपन्न हुआ व्यक्ति कहीं से भय नहीं देखता और अपने भीतर निर्दोष सुख को अनुभव करता है। यह होती है 'शील-संपत्ति'। जब वह व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में कर, हर अवस्था में स्मृति और संप्रज्ञान बनाये हुए, संतुष्ट हुआ, चित्त के नीवरणों को दूर कर, समाहित चित्त से प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है, यह उसकी चित्त-संपत्ति होती है। इसी प्रकार जब वह द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है, यह भी होती है उसकी 'चित्त-संपत्ति' ! इसी प्रकार समाहित-चित्त होकर जब वह व्यक्ति (विपश्यना) ज्ञान के लिए अपने चित्त को नवाता है, यह उसकी प्रज्ञा-संपत्ति होती है। ऐसे ही जब वह अपने चित्त को आम्नवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है जिसके फलस्वरूप यह प्रज्ञापूर्वक जान लेता है – 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं' - यह भी होती है 'प्रज्ञा-संपत्ति'! इस 'शील-संपत्ति', 'चित्त-संपत्ति', 'प्रज्ञा-संपत्ति' से बढ़ कर कोई अन्य शील-संपत्ति, चित्त-संपत्ति, प्रज्ञा-संपत्ति नहीं होती है। भगवान ने अन्य आचार्यों के मन में अपने बारे में होने वाली अनेक भ्रांतियों को भी यह कह कर दूर किया कि श्रमण गौतम सिंह-गर्जना करता है, परिषदों में गर्जना करता है, बड़ी कुशलता के साथ गर्जना करता है, लोग उससे प्रश्न पूछते हैं, वह लोगों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देता 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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