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________________ [२५] सिद्ध कर दिया कि वह शाक्यों के पूर्व-पुरुष राजा ओक्काक के दासी - पुत्र ' कण्ह' का वंशज है । यह जान कर अम्बट्ठ के साथ आए हुए माणवक कोलाहल करने लगे - 'अम्बट्ठ दुर्जात है, अकुलीन है, शाक्यों का दासी - पुत्र है, शाक्य अम्बट्ठ के आर्यपुत्र होते हैं, इत्यादि ।' जब भगवान ने देखा कि माणवक अम्बट्ट को 'दासीपुत्र, दासीपुत्र' कह कर बहुत जा रहे हैं तब उन्होंने उसको इससे छुड़ाने के लिए माणवकों से कहा कि अम्बट्ट को अधिक मत लजाओ, यह ‘कण्ह’ एक ऋद्धि-संपन्न महान ऋषि थे । उन्होंने उनको इसकी कथा भी सुनायी । तत्पश्चात भगवान ने अम्बट्ट को जातिवाद के मिथ्या अभिमान को छोड़ देने का परामर्श देते हुए कहा ‘“अम्बट्ठ! जहां आवाह-विवाह होता है वहीं पर यह कहा जाता है 'तू मेरे योग्य है', 'तू मेरे योग्य नहीं है ' । वहीं यह जातिवाद, गोत्रवाद, मानवाद भी चलता है 'तू मेरे योग्य है', 'तू मेरे योग्य नहीं है' । अम्बट्ट ! जो कोई जातिवाद में फँसे हैं, गोत्रवाद में फँसे हैं, मानवाद में फँसे हैं, आवाह-विवाह में फँसे हैं, वे अनुपम 'विद्या' और 'चरण' की संपदा दूर हैं । अम्बट्ट ! जातिवाद, गोत्रवाद, मानवाद और आवाह - विवाह के बन्धन छोड़ कर ही अनुपम 'विद्या' और 'चरण ' की संपदा का साक्षात्कार किया जाता है ।" - अम्बट्ट द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'विद्या' और 'चरण' क्या होते हैं, भगवान ने उसे समझाया कि संसार में जब कभी कोई तथागत उत्पन्न होता है तब उसके द्वारा प्रतिपादित धर्म को सुन कर कोई गृहपति श्रद्धावान हो, घर-बार त्याग, प्रव्रज्या ग्रहण कर, शील-पालन, इंद्रियों के वशीकरण और स्मृति-संप्रज्ञान के सतत अभ्यास में लगा रह कर संतुष्टि को प्राप्त होता है और तत्पश्चात नीवरणों को दूर कर प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है तो यह 'चरण' के अंतर्गत आता है । ऐसे ही द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ ध्यान । इनमें से भी प्रत्येक 'चरण' के अंतर्गत आता है । फिर जब वह गृहपति समाहित, शुद्ध तथा क्लेश-रहित चित्त से विपश्यना का ज्ञान प्राप्त कर है, वह 'विद्या' के अंतर्गत आता है। ऐसे ही चित्त से मनोमय शरीर का निर्माण करना, ऋद्धियों को अनुभव करना, दिव्य श्रोत्र प्राप्त करना, परचित्तज्ञान, पूर्वजन्मों की स्मृति, प्राणियों की च्युति और उत्पाद का ज्ञान तथा आस्रवों के क्षय का ज्ञान - ये सब के सब एक-एक करके 'विद्या' के अंतर्गत आते हैं । ऐसा भिक्षु 'विद्यासंपन्न' भी कहलाता है, 'चरणसंपन्न' भी, और 'विद्याचरणसंपन्न' भी । इस ‘विद्यासंपदा' और 'चरणसंपदा' से बढ़ कर कोई 'विद्या - संपदा' अथवा 'चरण - संपदा' नहीं होती है । Jain Education International 35 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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