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________________ [११] चौथी धम्म संगीति श्रीलंका में २९ वर्ष ईसा पूर्व, राजा वट्टगामिनी के समय में आयोजित की गई। इसमें पांच सौ विद्वान थेरों ने भाग लिया तथा इसकी अध्यक्षता महाथेर रक्खित ने की। इसमें सारे तिपिटक का संगायन किया गया तथा उसे प्रथम बार लिपिबद्ध कर लिया गया । पांचवीं धम्म संगीति सन १८७१ में ब्रह्मदेश के मांडले शहर में राजा मिं डों मिं के संरक्षण में बुलाई गयी । इसमें दो हजार चार सौ विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया । इस संगीति की अध्यक्षता बारी-बारी से श्रद्धेय महाथेर जागराभिवंस, महाथेर नरिंदभिधज तथा महाथेर सुमंगल सामी ने की । तिपिटक का संगायन और उसे संगमरमर की पट्टियों पर लिखने का कार्य पांच मास तक चलता रहा । छठी धम्म-संगीति मई, १९५४ में ब्रह्मदेश के प्रधानमंत्री ऊ नू द्वारा रंगून में आयोजित की गई। श्रद्धेय अभिधज महारट्ठगुरु भदंत रेवत ने इसकी अध्यक्षता की तथा इसमें दो हजार पांच सौ विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया, जो ब्रह्मदेश, श्रीलंका, थाईलैंड, कंपूचिया, भारत आदि देशों से आये थे। उन्होंने तिपिटक तथा इसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि को पुनः जांचा और इनके प्रामाणिक संस्करण का प्रेम लिपि में मुद्रण करवाया। इस संगीति का समापन सन १९५६ की वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के २५०० वर्ष पूरे होने पर हुआ । इन छः ऐतिहासिक संगीतियों में पहली तीन भारत में, चौथी श्रीलंका में तथा पांचवीं व छठी ब्रह्मदेश में हुई, जो कि धम्म को शुद्ध रूप से सुरक्षित रखने में सफल हुई । इन छः संगीतियों के कारण ही भगवान बुद्ध के २५०० वर्ष बाद भी धम्म अपने शुद्ध रूप जीवित है और निरंतर विकसित एवं प्रसारित हो रहा है । पालि तिपिटक, अट्ठकथाओं आदि का प्रकाशन विभिन्न लिपियों में उपलब्ध है; जैसे कि सिंहली, म, थाई, कंबोजी, रोमन तथा देवनागरी आदि । भारतवर्ष में सर्वप्रथम नागरी लिपि में तिपिटक तथा कुछ अट्ठकथाओं का प्रकाशन नव-नालंदा महाविहार, नालंदा ने किया। किंतु अभी तक संपूर्ण अट्ठकथाएं तथा टीकाएं नागरी में उपलब्ध नहीं हैं । नागरी लिपि में प्रकाशित तिपिटक भी आजकल अप्राप्य है । इस अभाव की पूर्ति हेतु विपश्यना विशोधन विन्यास संपूर्ण पालि तिपिटक, अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि को देवनागरी लिपि में संपादित कर, प्रकाशित कर रहा है। इस प्रकाशन का मूल उद्देश्य साधकों तथा विद्वानों को परियत्ति ज्ञान के आधार पर विपश्यना द्वारा शुद्ध धर्म के पथ पर चलने की प्रेरणा देना है तथा भगवान की वाणी को घर-घर तक पहुँचाना है । Jain Education International 21 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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