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________________ [६] सेनापति सिंह, चाहे राजमहिषी श्यामावती हो या दासी खुज्जुत्तरा, चाहे राजपुरोहित पुत्र कात्यायन हो या राजवैद्य जीवक, चाहे दानवीर श्रेष्ठि अनाथपिंडिक हो या भिखमंगा कोढ़ी सुप्पबुद्ध, चाहे जटिल काश्यप बंधु हों या परिव्राजक दारुचीरिय, चाहे सद्गृहिणी विसाखा हो या नगरवधू अम्बपाली, चाहे ब्राह्मण महाकाश्यप हो या भंगी सुनीत, चाहे ब्राह्मण सारिपुत्र हो या चांडालपुत्र सोपाक, चाहे सदाचारी सीलवा या हत्यारा अंगुलिमाल - भगवान के संपर्क में जो आया, जिसने भी धर्म - गंगा में डुबकी लगायी, जिसने भी विपश्यना साधना का अभ्यास किया, वही बदल गया, वही सुधर गया, वही दुःख - मुक्त हो गया । कुछ अनजान लोगों में भगवान बुद्ध के प्रति एक भ्रम यह भी है कि वह जन्म-मरण के भवचक्र से मुक्त होने का उपदेश देते थे, अतः रोजमर्रा की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के प्रति नितांत उदासीन और अन्यमनस्क थे । इस साहित्य का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वे लोकीय समस्याओं के प्रति भी कितने सजग और संवेदनशील थे । यह सच है कि उनके द्वारा भिक्षुओं को दिये गये लोकोत्तर परम सत्य से संबंधित उपदेशों की संख्या बहुत बड़ी है परंतु गृही-शिष्यों के लिए श्रेष्ठ लोकीय जीवन जीने के सदुपदेश कम नहीं हैं । उन्होंने गृहस्थ जीवन के हर पहलू पर उपदेश दिये हैं। माता-पिता और संतान, पत्नी और पति, मालिक और नौकर, गुरु और शिष्य, मित्र और मित्र, राजा और प्रजा के पारस्परिक संबंधों को लेकर दिये गये उनके उपदेश आज भी उतने ही तरोताजा हैं, उतने ही प्रासंगिक हैं, उतने ही उपादेय हैं । स्वदेश की समुचित सुरक्षा के लिए लिच्छवी प्रजातंत्रवादियों को दिया गया उनका उपदेश आज की किसी भी लोकतंत्रीय सरकार के लिए आदर्शरूप से अपनाया जा सकने योग्य है । इसी प्रकार अन्य शासकों के लिए भी उनकी शिक्षा अनमोल है । राजा रक्खतु धम्मेन अत्तनो व पजं पजं - शासक अपनी प्रजा की रक्षा वैसे ही करे जैसे कि वह अपनी संतान की करता है । उनकी शिक्षा की इस परंपरा से प्रभावित होकर धर्मराज सम्राट अशोक ने जिस लोक मंगलकारी शासन व्यवस्था का आदर्श उपस्थित किया वह समस्त मानवी इतिहास में अनूठा है, अनुपम है, अद्वितीय है, अनुकरणीय है । भारत ही नहीं अपितु समग्र विश्व के प्रशासकीय इतिहास का जाज्वल्यमान प्रकाश स्तंभ है | भगवान बुद्ध के बारे में एक और बड़ी भ्रांति यह है कि उन्होंने अपने उपदेशों में दुःख को महत्व दिया, अतः उनकी शिक्षा दुःखप्रधान है और निराशाजनक उदासी लिए हुए है । इस साहित्य के प्रकाश में आने से इस सर्वथा मिथ्या मान्यता का निराकरण होगा और यह तथ्य उजागर होगा कि दुःखी और निराश मानव के लिए आशा और विश्वास का आश्वासन लिए हुए, इसकी तुलना का अन्य कोई साहित्य कहीं उपलब्ध नहीं है। रोग को असाध्य बता देना रोगी के लिए अवश्य ही निराशाजनक बात होती है । परंतु रोगी को उसके रोग से आगाह कर के रोग के सही कारण को खोज बताना और इतना ही नहीं, उस कारण का निवारण कर रोगी को सर्वथा रोगमुक्त हो जाने Jain Education International 16 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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