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________________ का कितना ऋणी है | भारत ही नहीं समूचे विश्व की चिंतनधारा पर और आध्यात्मिक साहित्य पर भगवान बुद्ध की शिक्षा का गहरा प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। यही कारण है कि आज भी मानव-जाति के लिए बुद्धवाणी का विशिष्ट महत्व है। बुद्धवाणी की मंगलमयी गरिमा चिर-नवीन है। गिरे हुए मानवी मूल्यों को ऊपर उठाने में यह सदा अग्रणी रही है । घोर नैतिक अधःपतन से संत्रस्त, संतापित आधुनिक युग के लिए भगवद्वाणी की उपादेयता और अधिक प्रासंगिक हो उठी है। ___ इस साहित्य के अध्ययन से अनजान लोगों में भगवान बुद्ध के बारे में फैली हुई कुछ भ्रांतियों का निराकरण होगा । एक भ्रांति तो यह है कि भगवान बुद्ध स्वयं गृहत्यागी होने के कारण उनके शिष्य केवल गृहत्यागी भिक्षु ही थे, अतः उनकी शिक्षा केवल गृहत्यागी भिक्षुओं के लिए है, गृहस्थों के लिए नहीं । इस साहित्य से इस मिथ्या भ्रांति का सर्वथा निराकरण होगा । वास्तविकता यह है कि गृहत्यागी भिक्षु और भिक्षुणियों के मुकाबले भगवान के गृही-शिष्यों की संख्या कहीं अधिक थी। भगवान बुद्ध अपने जीवनकाल में ही बहुत लोक-विश्रुत हुए। उनकी यह प्रसिद्धि केवल गृहत्यागी संन्यासियों में ही नहीं थी, बल्कि गृहस्थों में भी उनकी कीर्ति खूब फैल गयी थी। वे प्रत्येक वर्षावास के तीन महीने किसी एक स्थान पर टिकते थे । अधिकतर श्रावस्ती या राजगृह जैसे घनी आबादी वाले नगरों में टिकते थे ताकि नगर के अधिक से अधिक लोग उनके सान्निध्य का लाभ उठा सकें, उनके उपदेशों से लाभान्वित हो सकें । वर्षावास के बाद वे अपना सारा समय उत्तर भारत के गंगा-जमुनी दोआबे के गांव-गांव, निगम-निगम, नगर-नगर में धर्मचारिका करने में लगाते थे । लाखों-करोड़ों लोगों को विकार-विमुक्ति के लिए विपश्यना-विधि का संदेश और उचित मार्ग-निर्देशन देते थे। इस साहित्य में हम इसका विशद विवरण पायेंगे । वे जहां जाते, समूह के समूह लोग उनके दर्शन के लिए उनके पास आते और उनका धर्म-उपदेश सुनते थे। कई लोग उनसे अकेले एकांत में भी मिलने आते थे। उनकी मंगल-वाणी से प्रभावित होकर स्थानीय गृहस्थ उन्हें भिक्षु-संघ सहित अपने घर भोजन-दान के लिए आमंत्रित करते और उनके आशीर्वादमय उपदेशों से लाभान्वित होते थे। देश का गृहत्यागी-वर्ग तो उनसे धार्मिक वार्तालाप करने और कभी-कभी वाद-विवाद करने के लिए भी आता ही रहता था परंतु उनसे मिलने वालों में अधिक संख्या गृहस्थों की ही होती थी। सम्बोधि प्राप्ति से लेकर महापरिनिर्वाण तक जीवन के ४५ वर्षों में भगवान ने हजारों सदुपदेश दिये । इनसे प्रभावित होकर केवल संन्यासी ही नहीं बल्कि समाज के हर संप्रदाय के, हर मान्यता के, हर पेशे के, हर वर्ग के गृहस्थ भगवान के संपर्क में आये और उनके बताये मार्ग पर चल कर मंगल-लाभी हुए । चाहे मगध-नरेश बिंबिसार हो या कोसल-नरेश प्रसेनजित, चाहे महारानी मल्लिका हो या महारानी खेमा, चाहे अभय राजकुमार हो या बोधि राजकुमार, चाहे सेनापति बंधुल हो या 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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